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________________ ४२० भी सेठिया जैन प्रन्थमाला छमस्थावस्था में विचरते हुए भगवान् को एक हजार वर्ष व्यतीत होगये। एक समय वे पुरिमताल नगर के शकटमुख उधान में पधारे। फान्गुन कृष्णा एकादशी के दिन भगवान् तेले का तप करके वट घृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थित हुए। उत्तरोत्तर परिणामों की शुद्धता के कारण घाती कर्मों का क्षय करके भगवान ने केवलज्ञान केवल दर्शन प्राप्त किये । देवों ने केवलज्ञान महोत्सव करके समयसरण की रचना की। देव, देवी, मनुष्य, स्त्रो आदि चारह प्रकार की परिषद् प्रभु का उपदेश सुनने के लिए एकत्रित हुई। दीक्षा लेकर जब से भगवान् विनीता नगरी से बिहार कर गये थे तभी से माता मरुदेवी उनके कुशल समाचार प्राप्त न होने के कारण बहुत चिन्तातुर हो रही थी। इसी समय भरत महाराज उनके चरण वन्दन के लिये गये । वह उनसे भगवान् के विषय में पूछ ही रही थी कि इतने मैं एक पुरुष ने आकर भरत महाराज को भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। यह बधाई दी। उसी समय दूसरे पुरुष ने आयुधशाला में चक्ररन उत्पन्न होने की और तीसरे पुरुष ने पुत्र जन्म की बधाई दी। सब से पहले केवलज्ञान महोत्सव मनाने का निश्चय करके भरत महाराज भगवान् को वन्दन करने के लिये रवाना हुए, हाथी पर सवार होकर मरुदेवी माता भी साथ में पधारी। समवसरण के नजदीक पहुँचने पर देवों का आगमन, केवलज्ञान के साथ प्रकट होने वाले अष्ट महाप्रतिहार्यादि विभूति को देख कर माता मरुदेवी को बहुत हर्ष हुथा। वह मन ही मन विचार करने लगी कि मैं तो समझती थी कि मेरा ऋषभकुमार जंगल में गया है, इससे उसको तकलीफ होगी परन्तु मैं देख रही हूँ कि ऋषभकुमार तो बड़े भानन्द में है और उसके पास तो बहुत ठाठ लगा हुधा है। मैं पृथा मोह कर रही थी। इस प्रकार अध्यवसायों की शुद्धि के
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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