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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३६० भावार्थ - जैसे हिरण को पकड़ कर सिंह ले जाता है, उसी तरह अन्त समय में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। उसके माता, पिता, भाई, आदि में से कोई भी उसकी सहायता नहीं करता । इस प्रकार संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप नहीं है । केवल एक धर्म अवश्य शरण रूप है। मरने पर भी यह जीव के साथ रहता है और संसारिक रोग, व्याधि, जरा, मृत्यु आदि के दुःखों से प्राणी की रक्षा करता है। यही बात स्वर्गीय शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्रजी स्वामी ने अपने भावना शतक में यों कही है संसारेऽस्मिन् जनिम्मृतिजरातापतप्ता मनुष्याः । सम्प्रेक्षन्ते शरणमनघं दुःखतो रक्षणार्थम् । नो तद्द्रव्यं न च नरपतिर्नापि चत्री सुरेन्द्रो । किन्त्वेकोयं सकलसुखदो धर्म एवास्ति नान्यः ॥ भावार्थ - इस संसार में जन्म मरण और जरा के ताप से संतप्त मनुष्य अपनी रक्षा करने के लिए निर्दोष शरण की ओर ताकते हैं परन्तु धन, राजा, चक्रवर्ती और इन्द्र कोई भी रोगादि से जीव को नहीं बचा सकते । सकल सुख के देने वाले एक धर्म के सिवाय दूसरा कोई भी इस संसार में शरण रूप नहीं है । 1 धर्ममात्र सत्य है और जीव के लिए शरण (आधार भूत ) है - इस संस्कार को दृढ़ करने के लिए सांसारिक वस्तुओं में शरणता का विचार करना चाहिए। जिस जीव का हृदय अशरण- भावना द्वारा भावित है वह किसी से सुख और रक्षा की श्राशा नहीं करता । धर्म पर उसकी दृढ़ श्रद्धा होजाती है । ( ३ ) संसार भावना - इस संसार में जीव अनादि काल से जन्म मरण आदि विविध दुःखों को सह रहा है । कर्मवश परिभ्रमण करते हुए उसने लोकाकाश के एक एक प्रदेश को अनन्ती बार व्याप्त किया परन्तु उसका अन्त न आया । नरक गति में जाकर इस जीव
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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