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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३ चिकित्सा करने में दक्ष, एक एक से बढ़कर वैध बुलाए गए। उन्होंने शास्त्रोक्त चिकित्सा की, बहुत परिश्रम किया परन्तु वे मुझे वेदना से मुक्त न कर सके। मेरे पिता मेरे लिए सभी धन सम्पत्ति देने को तैयार थे परन्तु वे दुःख से मेरी रक्षा न कर सके । पुत्र शोक से दुखित मेरी ममताभरी माता रोती थी परन्तु वह भी कुछ न कर सकी । मेरे सगे छोटे और बड़े भाई भी थे परन्तु वे भी मुझे दुःख से न बचा सके। छोटी बड़ी सगी बहिनें भी अपनी विवशता को कोसने के सिवाय कुछ न कर सकी । मेरी पत्नी, जो मुझ से बड़ा प्रेम करती थी और पतिव्रता थी, मेरे पास बैठी रोया करती थी। उसने खाना, पीना, स्नान, गन्ध, माल्य, विलेपन प्रादि सभी छोड़ दिए । क्षण भर के लिए भी वह मेरे पास से हटती न थी परन्तु वह भी कुछ न कर सकी। मेरी वेदनाज्यों की त्यों रही।चाहते हुए भी सभी स्वजन मेरी पीड़ा को कम न कर सके। राजन् ! बस, यही मेरी अनाथता है और यही हाल समीजीवात्माओं का है । नाथता का निरा अभिमान है। रोग से जिस प्रकार प्राणी की कोई रक्षा नहीं कर सकता उसी प्रकार काल के भागे भी किसी का वश नहीं चलवा । तीनों लोक में इसका प्रखण्ड राज्य है । देवेन्द्र, असुरेन्द्र, तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव जैसे समर्थ श्रात्मा भी काल के पंजे से अपने को नहीं बचा सके । काल से बचने के सभी प्रयत्न बेकार सिद्ध हुए हैं। फिर सामान्य प्राणी का स्वजन, धन और शारीरिक बल आदि का अमिमान करना और अपने को उनसे समर्थ और सुरक्षित समझना किवनाप्रविचार पूर्ण है। सिंह के पंजे में फंसे हुए मृगशावक की तरह सभी प्राणी काल के आगे विवश हैं। उत्तराध्ययन सूत्र से इसी श्राशय की एक गाथा यहाँ दी जाती है जहेह सीहोव्व मियंगहाय,मच्चूणरंगेइ हु अंतकाले। नतस्समायावपियवभाया,कालम्मितम्मं सहराभवंति
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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