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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोक्ष संग्रह, चौथा भाग ३४३ १६ कषाय, ५ ज्ञानावरणीय, ६ दर्शनावरणीय और ५ अन्तराय । ३ वेद । ६ संहनन । ६ संस्थान । ५ जातियों । २ वेदनीय । ४ हास्यादिहास्य, रति, अरति, शोक । ७ श्रदारिकादि - श्रदारिक शरीर, प्रौढारिक गोपाङ्ग, दारिक संघातन, औदारिक चौदारिक बन्धन, औदारिक तैजस बन्धन, श्रदारिक कार्मण बन्धन, चौदारिक तैजस कार्मण बन्धन । ४ उच्छ्वासादि - उच्छ्वास, उद्योत, तप, पराघात । २ विहायोगति - प्रशस्त, अप्रशस्त । २ तिर्यक - तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी । नीच गोत्र । कुल मिला कर १३० हुई । सम्यक्त्व से पहले प्रत्येक जीव के इन प्रकृतियों की सच्चा रहती है, इस लिए इन्हें बसचाक प्रकृतियों कहा जाता है। (६) अ वसत्ताक प्रकृतियों - सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पहले भी जो प्रकृतियाँ कभी सत्ता में रहती हैं और कभी नहीं रहतीं उन्हें अ वसत्ताक कहा जाता है । अध वसत्ताक प्रकृतियों २८ हैं- सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, मनुष्यानुपूर्वी । वैक्रियैकादशक - (१) देवगति (२) देवानुपूर्वी (३) नरक गति (४) नरकानुपूर्वी (५) वैक्रिय शरीर (६) वैक्रियाङ्गोपाङ्ग (७) वैक्रिय संघातन (८) वैक्रिय वैक्रिय बन्धन (8) वैक्रिय तैजस चन्धन (१०) वैक्रिय कार्मण बन्धन (११) वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धन | तीर्थङ्कर नाम कर्म । चार आयु- नरकायु, तिर्यश्चायु, मनुध्यायु और देवायु । श्राहारकसप्तक - (१) आहारक शरीर (२) आहारक अङ्गोपाङ्ग (३) आहारक संघातन (४) आहारकाहारक बन्धन - (५) आहारक तैजस. बन्धन (६) आहारक कार्मण चन्धन (७) आहारक तैजस कार्मण बन्धन । उच्च गोत्र । उपरोक्त २८ प्रकृतियाँ अवसचाक हैं। इन में से सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय भन्यों के सर्वथा नहीं होतीं । बहुत से भव्य भी इन प्रकृतियों के बिना होते हैं । मनुष्य गति, मनुष्यानुपूर्वी और ११ वैक्रियैकादश, ये१३ 1
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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