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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला ३४२ दया कही जाती है । मिथ्यात्व आदि प्रकृतियों का उदय यद्यपि एक बार विच्छिन्न होकर फिर शुरू हो जाता है, फिर भी उन्हें अध वोदया नहीं कहा जाता क्योंकि उनका अनुदय उपशम के कारण होता है और जितनी देर उपशम रहता है उदय नहीं होता । उपशम न होने पर जब उदय होता है तो वह क्षय या उपशम से पहले प्रत्येक समय बना रहता है । निद्रा आदि प्रकृतियों उपशम या क्षय न होने पर भी सदा उदय में नहीं रहतीं । जैसे नींद लेते समय ही निद्रा का उदय होता है, जागते समय नहीं । 1 गुणस्थानों की अपेक्षा भी इनका भेद जाना जा सकता है जैसे चौथे गुणस्थान में निद्रा और मनः पर्यय ज्ञानावरणीय दोनों प्रकृतियों का उदय होता है । उन में मनःपर्यय ज्ञानावरणीय का उदय हमेशा रहता है । निद्रा का उदय तभी होता है जब जीत्र 1 नींद लेता है । यही इन दोनों का भेद है । (५) ध्रुवसत्ताक प्रकृतियों - जो प्रकृतियाँ सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पहले सभी जीवों को होती हैं, वे ध्रुवसत्ताक कहलाती हैं । ध्रुवसत्ताक प्रकृतियाँ १३० हैं । त्रसदशक - त्रस बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, यशः कीर्ति । स्थावरद राक - स्थादर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति । इन दोनों को मिला कर सविशति भी कहा जाता है। वर्णविंशति- ५ वर्ण, ५ ररा २ गन्ध, ८ स्पर्श । तैजस कार्मणसप्तक - तेजस शरीर, कार्मण शरीर, तेजस तैजस बन्धन, तैजस कार्मण बन्धन, कार्मण कार्मण बन्धन, तैजस सङ्घातनं, कार्मण संघातन । ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में से वर्ण चतुष्क, तैजस और कार्मण इन छःप्रकृतियों को कम कर देने पर बाकी ४१ - अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, भय, जुगुप्सा, मिथ्याल,
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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