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________________ श्री जेन सिद्धान्त बोल साह, चौथा भाग २३७ अर्थात्-मिनु अपने शरीर में उत्पन्न हुए रोग के इलाज के लिए औपधि सेवन की इच्छा न करे किन्तु श्रात्म-शोधक बन कर शान्त चिन से समाधि भाव में संलग्न रहे । साधु स्वयं चिकित्सा न करे और न दूसरों से करावे, इसी में उसका सच्चा साधुत्व है। उपरोक्त नियम जिनकल्पी साधुओं के लिए है स्थविर कल्पिों के लिये नहीं क्योंकि स्थिविर कल्पी साधु अपने कल्पानुसार निरवध औषधि का सेवन कर सकते हैं। (8) स्थविरकल्पिक सूत्र-स्थविरकल्पी साधुओं के लिए नो नियम हो वह स्थविरकल्पिक सूत्र कहलाता है। यथा'भिक्खु अ इच्छिज्जा अन्नयरि तेगिच्छि आउंटित्तए' । अर्थात्-स्थविरकल्पी साधु निरवध औषधि का सेवन करे । अथवा जो जिनकल्पी और स्थविर कल्पी साधुओं के लिए एक सरीखा सामान्य नियम हो । यथा 'संसह कप्पण चरिज्ज भिक्खू अर्थाद-साधु भिक्षा योग्य पदार्थ से संसृष्ट (खरड़े हुए) हाथ या कड़छी से दिया जाने वाला आहार ग्रहण करे। (१०) आर्या सूत्र-साध्वियों के लिए नियम बतलाने वाला सूत्र आर्या सूत्र कहलाता है । यथाकप्पइ निग्गंधीणं अन्तोलित्तं घडिमत्तयं धारित्तए । अर्थात्-साध्वियों को लघुनीति आदि परठने के लिये अन्दर से लीपा हुआ मिट्टी का वर्तन रखना कल्पता है। (११) काल सूत्र-भूत,भविष्यत् और वर्तमान काल में से किसी एक काल के लिये बनाया गया स्त्र कालस्त्र कहलाता है। यथानवालभेज्जानिउणं सहायं,गुणाहियं वागुणोसमंवा। इक्कोविपावाईविवजयंतो,विहरिजकामेसुअसजमाणो॥ अर्थात्-यदि अपने से गुणों में अधिक अथवा गुणों में तुल्य
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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