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________________ . श्री जैन सिद्धान्त बोल-संग्रह, चौथा भाग १८१ समयोत्पन्न कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय, अप्रथम समयोत्पन्न, चरम समयोत्पन्न, अचरमसमयोत्पन, प्रथमप्रथमसमयकृतयुग्म कृतयुग्म, अप्रथम प्रथम समयवर्ती, प्रथम चरम समयवर्ती, प्रथम अचरम समयवर्ती, चरम चरम समयवर्ती, चरम अचरम समयवर्ती कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों के उत्पाद आदि का वर्णन किया गया है। आगे दूसरे से बारहवें शतक तक में भवसिद्धिक कृष्ण लेश्या वाले, भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय आदि का वर्णन तेतीसवें शतक की तरह किया गया है: बत्तीसवाँ शतक छत्तीसवें शतक के अन्तर्गत बारह शतक हैं । एक एक शतक में ग्यारह ग्यारहउद्देशे हैं । पहले शतक के पहले उद्देशे में निम्नविषय वर्णित हैं। __कृतयुग्म कृतयुग्म बेइन्दिय जीवों के उत्पाद, अनुवन्ध काल श्रादि का वर्णन है। दूसरे से ग्यारहवेंउद्दशे तक प्रथमसमयोत्पन्न, अप्रथमसमयोत्पन आदि का कथन है। दूसरे से पारहवें शतक तक भवसिद्धिक, भवसिद्धिक कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले वेइन्द्रिय जीवों का वर्णन तेतीसवें शतक की तरह किया गया है। सतीसवाँ शतक इस शतक के अन्तर्गत बारह शतक हैं। प्रत्येक में ग्यारह ग्यारहा उद्देशे हैं अर्थात् इस शतक में कुल १३२ उद्देशे हैं । इस शतक में तेइन्द्रिय जीवों का वर्णन है। इसका सारा अधिकार तेतीसवें शतक की तरह ही है, किन्तु इसमें गति, स्थिति आदि का कथन तेइन्द्रिय जीवों की अपेक्षा किया गया है। अड़तीसवाँ शतक इसमें बारह अन्तर्शतक हैं जिनके १३२ उद्देशे हैं। इस शतक
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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