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________________ १७८ श्री सेठिया जन प्रन्थमाला कर्मकाप्रारम्भ एक ही समय (समकाल) में करते हैं और उनका अन्त भी समकाल में ही करते हैं ? इत्यादि प्रश्न करके अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न इत्यादि का कथन ग्यारह उद्देशों में छब्बीसवें शतक की तरह किया गया है। . तीसवाँ शतक (१-१)उ०-तीसवें शतक में ग्यारह उद्देशे हैं । पहले उद्देशे में चार प्रकार के समवसरण, क्रियावादी, अक्रियावादी, । अज्ञानवादी, विनयवादी । सलेश्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्र दृष्टि पृथ्वीकायिक आदि जीवों में क्रियावादित्व आयुवन्ध आदि के प्रश्नोत्तर हैं। दूसरे उद्देशे से ग्यारहवे उद्देशे तक अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक आदि का कथनर वे शतक की तरह किया गया है। इकतीसवाँ शतक (१-२८) उ०-इस शतक में २८ उद्देशे है। जिनमें निम्न विषय वर्णित है । जिस संख्या में से चार चार वाकी निकालते हुए अन्त में चार--बचें वह क्षुद्रकृतयुग्म, तीन बचें तो योज, दो चचें तो द्वापरयुग्म और एक वचे तो कल्योन कहलाता है। नैरयिकों के उपपात, उपपात संख्या, उपपात के मेद इत्यादि का कथन किया गया है। दूसरे से आठचे 'उद्देशे तक क्रमशः कृष्णलेश्या नीललेश्या, कापोतलेश्या वाले नरयिक, कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक, कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक, नीललेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों का कथन कृतयुग्म आदि की अपेक्षा से किया गया है। जिस प्रकार ऊपर भवसिद्धिक जीव की अपेक्षा चार उद्देशे कहे गये हैं उसी तरह प्रभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि, मिथ्वादृष्टि, कृष्णपाक्षिक और शुक्रपाक्षिक प्रत्येक के चार चार उद्देशे कहे गये हैं, उनमें कृतयुग्म, योज, द्वापरयुग्म और कन्योज की अपेक्षा उपपात आदि का वर्णन किया गया है।
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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