SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग १७७ छब्बीसवाँ शतक (१)उ०-सामान्य जीव की अपेक्षा बन्ध वक्तव्यता। लेश्या, कृष्णपादिक, शुक्लपाक्षिक, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, संज्ञा, वेद, कषाय, योग और उपयोगयुक्त जीव की अपेक्षा बन्ध वक्तव्यता । नरयिक • आदि दण्डकों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की वन्ध वक्तव्यता । (२-११)उ०-दूसरे से ग्यारहवें उद्देशे तक क्रमशः निम्न विषय वर्णित हैं-अनन्तरोपपन्न नैरयिक का पापकम बन्ध, परम्प- ., रोपपन्न, अनन्तरावगाढ, परम्पराक्गाद, अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अनन्तर पर्याप्तक, परम्परापर्याप्तक, चरम और अचरम नैरयिकों के पापकर्म की वन्ध वक्तव्यता । इन सब में इसी शतक के पहले उद्देशे की भलामण दी गई है। सत्ताईसवॉ शतक (१-१२)उ०-सत्ताईसवें शतक के ग्यारह उद्देशे हैं जिनमें ,निम्न विषय वर्णित हैं-जीव ने पापकर्म किया है, करता है और करेगा, पाप कर्म नहीं किया, नहीं करता है और नहीं करेगा इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं और अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न इत्यादि का कथन छब्बीसवें शतक की तरह किया गया है। । अठाईसवाँ शतक (१-११)उ०-अट्ठाईसवें शतक में ग्यारह उद्देशे हैं जिनमें निम्न विषय हैं-सामान्य जीव की अपेक्षा से कहा गया है कि इस जीव ने कहाँ और किस तरह से पाप कर्म उपार्जन किये हैं और कहाँ और किस तरह से भोगेगा? इस प्रकार प्रश्नोत्तर करके अनन्तरोपपन्न परम्परोपपन्न इत्यादि का कथन जिस तरह २६ वें शतक में किया गया है उसी तरह यहॉ भी सभी उद्देशों में समझना चाहिए। उनतीसवाँ शतक (१-१२)उ०-इस शतक में ग्यारह उद्देशे हैं । क्या जीव पाप है पापा
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy