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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह चौथा भाग १६७ क्रमशः एकेन्द्रिय, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, वायुकुमार, अग्निकुमारों के समान आहार, लेश्या का अल्पवहुत्व और ऋद्धि की वहुत्व की वक्तव्यता । अठारहवाँ शतक ( १ ) उद्देशा - जीव जीवभाव से और सिद्ध सिद्धभाव से प्रथम हैं या अप्रथम ? इसी तरह थाहारक, अनाहारक, भवसिद्धिक संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयम, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, पर्याप्त आदि द्वारों से प्रथम और अप्रथम की वक्तव्यता और इन्हीं द्वारों से चरम और अचरम की वक्तव्यता | (२) उ० कार्तिक सेठ का अधिकार । (३) उ०- माकन्दी पुत्र अनगार का अधिकार | भगवान से किये गये प्रश्नों का उत्तर । पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय से निकल कर जीव मनुष्य भव को प्राप्त कर मोक्ष जा सकता है । निर्जरित पुद्गल सर्वलोक व्यापी हैं। छद्मस्थ निर्जरा के पुद्गलों का वर्ण आदि देख सकता है ? बन्ध के प्रयोग वन्ध, विस्रसा चन्ध आदि भेद तथा इनका वर्णन । C (४) उ० - प्राणातिपात, स्पावाद आदि जीव के परिभोग में आते भी हैं और नहीं भी आते, कषाय के वर्णन के लिए पन्नवणा के कषाय पद की भलामण | क्या नैरयिक यांवत् स्तनितकुमार यादि कृतयुग्म, कल्योज, द्वापरयुग्म आदि राशि रूप हैं । इसी प्रकार चौवीस दण्डकों तक प्रश्नोतर | (५) उ० - असुरकुमारों में उत्पन होने वाले दो देवों में से एक के विशिष्ट रूपवान, सुन्दर और दूसरे के सामान्य रूपवान् होने का कारण, नरक में उत्पन होने वाले दो नैरयिकों में एक मिथ्या दृष्टि, महाकर्मा और महावेदना वाला और दूसरा सम्यग्दृष्टि, अल्पकर्मा और मन्पवेदना वाला क्यों होता है? चौबीस दण्डकों में ·
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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