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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ७३ पह रूपी संग्राम में जय विजय करते हुए विचरते थे । इत्यादि वर्णन किया गया है। 1 (४) उ०- तपश्चर्या । अनशन आदि तप करते हुए रोग की चिकित्सा न करते हुए, और न शरीर का शृङ्गार करते हुए मौन वृत्ति से विचरते थे। शीत उष्ण को सहन करते हुए सूर्य की आतापना लेते थे । औदन, मन्थु, कुल्माप (उड़द के वाकले आदि) इन तीन पदार्थों को मारा और अर्द्ध मास के पारणे में ग्रहण करते थे । मास, द्विमास, त्रिमास यावत् छः मास के पारणों में भी उक्त आहार को ही ग्रहण करते थे । तत्र को जानने वाले भगवान् महावीर ने छद्मस्थ चर्या (अवस्था) में आपने स्वयं पापकर्म नहीं किया, दूसरे से नहीं करवाया और करते हुए को भो भला न जाना । ग्राम और नगर में शुद्ध आहार के लिए किसी भी जीव का वृत्तिच्छेद न करते हुए आहार ग्रहण करते थे । मन्दगति से चलते हुए, हिंसा से निवृत्त होते हुए, जिस प्रकार का भी आहार मिलता था उससे ही निर्वाह करते थे। हढ़ासन लगा कर आत्मान्वेषण करते हुए ध्यान में लीन हो जाते थे । शब्दादि पदार्थों में मूच्छित न होते हुए कभी भी प्रमाद न करते थे इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है 1 दूसरा श्रुतस्कन्ध इस श्रुतस्कन्ध में तीन चूलिकाएं हैं। पहली चूलिका में दस से सोलह तक सात अध्ययन हैं। दूसरी में सतरह से तेईस तक सात । तीसरी में २३ और २४ दो । अध्ययनों के नाम, उद्देशे और विषय नीचे लिखे अनुसार हैं : पहली चूलिका । दसवाँ अध्ययन - पिंडेपणा । गोचरी के नियम तथा सदोष निर्दोष आहार का विवेचन । इसमें ग्यारह उद्दशे हैं (१) उ० - मुनियों को कैसा श्राहार लेना चाहिये और कैसा
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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