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________________ मी जैनसिद्धान्त बोल संग्रह (५) आयुकर्म- जिस कर्म के रहते पाणी जीता है तथा पूरा होने पर मरता है उसे आयुकर्म कहते हैं। अथवा जिस कर्म से जीव एक गति से दूसरी गति में जाता है वह आयु कर्म कहलाता है। अथवा स्वकृत कर्म से प्राप्त नरकादि दुर्गति से निकलना चाहते हुए भी जीव को जो उसी गति में रोके रखता है उसे आयु कर्म कहते हैं । अथवा जो कर्म प्रति समय भोगा जाय वह आयु कर्म है। या जिस के उदय आने पर भवविशेष में भोगने लायक सभी कर्म फल देने लगते हैं वह आयु कर्म है। ___ यह कर्म कारागार के समान है । जिस प्रकार राजा की आज्ञा से कारागार में दिया हुआ पुरुष चाहते हुए भी नियत अवधि के पूर्व वहाँ से निकल नहीं सकता उसी प्रकार आयु कर्म के कारण जीव नियत समय तक अपने शरीर में बंधा रहता है । अवधि पूरी होने पर वह उस शरीर को छोड़ता है परन्तु उसकेपहिले नहीं। आयु कर्म के चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु । आयु कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । नारकी और देवता की आयु जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है । तिर्यश्च तथा मनुष्य की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । __नरकायु, तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायु के बंध के चार चार कारण हैं, जो इसके प्रथम भाग बोल नं० १३२ से १३५ में दिये जा चुके हैं । नरकायु कार्मणशरीर प्रयोग नाम, तिर्यश्वायु कार्मणशरीर प्रयोग नाम, मनुष्यायु कागंण शरीर प्रयोग नाम और देवायुकार्मण शरीरप्रयोग नामकर्म के उदय से भी जीव क्रमशः नरक,तिर्यश्च,मनुष्य और देव की आयु का बंध करता है। ___आयु कर्म का अनुभाव चार प्रकार का है-नरकायु, तिर्यश्वायु, मनुष्यायु और देवायु । यह अनुभाव स्वतः और परतः
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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