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________________ - श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह समझना चाहिये और श्रोत्रविज्ञानावरण से श्रोत्रेन्द्रिय विषयक उपयोग का आवरण समझना चाहिये । निर्वृत्ति उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय यहाँ अपेक्षित नहीं है, पर लब्धि और उपयोग रूप भावेन्द्रिय की ही यहाँ विवक्षा है। द्रव्येन्द्रिय तो नामकर्म से होती है, इसलिये ज्ञानावरण उसका विषय नहीं है। प्रत्येक कर्म का अनुभाव स्व और पर की अपेक्षा होता है। गति, स्थिति और भव पाकर जो फलभोग होता है वह स्वतः अनुभाव है। पुद्गल और पुद्गल परिणाम की अपेक्षा जो फलभोग होता है उसे परतः अनुभाव समझना चाहिये । ___ गति, स्थिति और भव का अनुभाव इस प्रकार समझाया गया है। कोई कर्म गति विशेष को पाकर ही तीव्र फल देता है । जैसे असाता वेदनीय नरक गति में तीव्र फल देता है । नरक गति में जैसी असाता होती है वैसी अन्य गतियों में नहीं होती। कोई कर्म स्थिति अर्थात उत्कृष्ट स्थिति पाकर ही तीव्र फल देता है, जैसे मिथ्यात्व । क्योंकि मिथ्यात्व जितनी अधिक स्थिति वाला होता है उतना ही तीव्र होता है । कोई कर्म भव विशेष पाकर ही अपना असर दिखाता है । जैसे निद्रा दर्शनावरणीय कर्म मनुष्य और तिर्यश्च भव में अपना प्रभाव दिखाता है । गति, स्थिति और भवकोपाकर कर्म फल भोगने में कर्म प्रकृतियाँ ही निमित्त हैं। इसलिये यह स्वतः निरपेक्ष अनुभाव है। पुद्गल और पुद्गलपरिणाम का निमित्त पाकर जिस कर्म का उदय होता है वह सापेक्ष परतः उदय है। कई कर्म पुद्गल का निमित्त पाकर फल देते हैं, जैसे किसी के लकड़ी या पत्थर फेंकने से चोट पहुँची। इससे जो दुःख का अनुभव हुआ या क्रोध हुआ, यहाँ पुद्गल की अपेक्षा असातावेदनीय और मोहनीय का उदय समझना चाहिये । खाये हुए आहार के
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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