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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह - में विचित्रता उत्पन्न करली हो । जो सभी दर्शनों की तुलना करके भलीभाँति ठीक बात बता सकता हो। जो सुललित उदाहरण तथा अलङ्कारों से अपने व्याख्यान को मनोहर बना सकता होतथा श्रोताओं पर प्रभाव डाल सकता हो, उसे विचित्रश्रुत कहते हैं।(घ) घोषविशुद्धिश्रुत-शास्त्र का उच्चारण करते समय उदात्त, अनुदात्त, खरित, हस्व, दीर्घ आदि स्वरों तथा व्यञ्जनों का पूरा ध्यान रखना घोषविशुद्धि है । इसी तरह गाथा आदि का उच्चारण करते समय षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि स्वरों का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए । उच्चारण की शुद्धि के बिना अर्थ की शुद्धि नहीं होती और श्रोताओं पर भी असर नहीं पड़ता। (३) शरीरसम्पदा- शरीर का प्रभावशाली तथा सुसंगठित होनाही शरीरसम्पदा है। इसके भी चार भेद हैं-(क) आरोहपरिणाह सम्पन्न-- अर्थात् गणी के शरीर की लम्बाई चौड़ाई मुडौल होनी चाहिए । अधिक लम्बाई या अधिक मोटा शरीर होने से जनता पर प्रभाव कम पड़ता है। केशीकुमार और अनाथी मुनि के शरीरसौन्दर्य से ही पहिले पहल महाराजा परदेशी और श्रेणिक धर्म की और झुक गए थे। इससे मालूम पड़ता है कि शरीर का भी काफी प्रभाव पड़ता है। (ख) शरीर में कोई अङ्ग ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे लज्जा हो, कोई अङ्ग अधूरा या बेडौल नहीं होना चाहिए । जैसे काना आदि । (ग)स्थिरसंहनन-शरीर का संगठन स्थिर हो, अर्थात् ढीलाढाला न हो।(घ) प्रतिपूर्णेन्द्रिय अर्थात् सभी इन्द्रियाँ पूरी होनी चाहिए। (४) वचनसम्पदा- मधुर, प्रभाव शाली तथा प्रादेय वचनों का होना वचनसम्पदा है। इसके भी चार भेद हैं-(क) आदेयवचन अर्थात् गणी के वचन जनता द्वारा ग्रहण करने योग्य हो । (ख) मधुरवचन अर्थात् गणी के वचन सुनने में मीठे
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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