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________________ ८ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला न करे । इस जगह पर कहीं कहीं अदुगंछा भी कहा जाता है। इसका अर्थ है किसी बात से घृणा न करे । सभी वस्तुओं को पुद्गलों का धर्म समझकर समभाव रक्खे । . (४)अमूढदृष्टि-भिन्न दर्शनों की युक्तियों या ऋद्धि को सुन कर या देखकर अपनी श्रद्धा से विचलित न हो अर्थात् आडम्बर देखकर अपनी श्रद्धा को डांवाडोल न करे अथवा किसी भी बात में घबरावे नहीं । संसार और कर्मों का वास्तविक स्वरूप समझते हुए अपने हिताहित को समझकर चले । अथवा स्त्री, पुत्र, धन आदि में गद्ध न हो। (५) उपन्हण- गुणी पुरुषों को देख उनकी प्रशंसा करे तथा ... स्वयं भी उन गुणों को प्राप्त करने का प्रयत्न करे अथवा अपनी आत्मा को अनन्त गुण तथा शक्ति का भंडार समझकर उसका अपमान न करे। उसे तुच्छ, हीन और निर्बल न समझे। (६) स्थिरीकरण-- अपने अथवा दूसरे को धर्म से गिरते देख कर उपदेशादि द्वारा धर्म में स्थिर करे। (७) वात्सल्य- अपने धर्म तथा समानधर्म वालों से प्रेम रक्खे । (८) प्रभावना-- सत्यधर्म की उन्नति तथा प्रचार के लिए प्रयत्न करे अथवा अपनी आत्मा को उन्नत बनावे । (पन्नवणा पद 3 ) (उत्तरा० अ० २८, (प्रकरण रत्नाकर द्रव्यविचार भाग २) ५७०- प्रवचनमाता पाठ पाँच समिति और तीन गुप्ति को प्रवचन माता कहते हैं । समितियाँ पाँच हैं (१) ईयो समिति (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति (४) आदानभंडमात्रनिक्षेपणा समिति (५) उच्चारप्रश्रवण खेलसिंघाणजल्लपरिस्थापनिका समिति । इनका स्वरूप प्रथम भाग के बोल नं० ३२३ में दिया गया है।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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