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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३२१ भाव दिखलाती हुई पौषधशाला में महाशतक श्रावक के पास जा पहुँची । वहाँ पहुँच कर मोह और उन्माद को उत्पन्न करने वाले शृङ्गार भरे हाव भाव और कटाक्ष आदि खी भावों को दिखाती हुई महाशतक को लक्ष्य करके बोली- तुम बडे धर्म ... कामी, पुण्यकामी, स्वर्गकामी, मोक्षकामी, धर्म की आकांक्षा करने वाले, धर्म के प्यासे बन बैठे हो ! तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग .. और मोक्ष से क्या करना है ? तुम मेरे साथ मन चाहे काम भोग क्यों नहीं भोगते हो? तात्पर्य यह है कि धमे, पुण्य मादि मुख के लिए ही किए जाते हैं और विषय भोग से बढ़ कर दूसरा कोई सुख नहीं है। इसलिर तपस्या आदि झंझटों को छोड़ कर मेरे साथ यथेच्छ काम भोग भोगो। रेवती गाथाफ्नी के इस प्रकार दो तीन बार कहने पर भी महाशतक श्रावक ने इस .. पर कोई ध्यान नहीं दिया किन्तु मौन रहकर धर्म ध्यान में लगा रहा । महाशतक श्रावक द्वारा किसी प्रकार का आदरसत्कार न पाकर रेवती गाथापती अपने स्थान को वापिस चली गई। इसके बाद महाशतकने श्रावक की ग्यारह पडिमाएं स्वीकार की और मूत्रोक्त विधि से यथावत् पालन किया । इस प्रकार कठिन और दुष्कर तप करने से महाशतक का शरीर अति कृश होगया। इसलिए मारणान्तिक संलेखनाकर धर्मध्यान में तल्लीन होगया।शुभ अध्यवसाय के कारण और अवधि ज्ञानावरणफर्म के क्षयोपशम से महाशतक भावकको अवधिज्ञान उत्पन्न होगया। वह पूर्व दिशा में लवण समुद्र के अन्दर एक हजार योजन सक जानने और देखने लगा। इसी तरह दक्षिण और पश्चिम में भी लवण समुद्र में एक हजार योजन तक जानने और देखने लगा। उत्तर में चुलहिमवन्त पर्वत तक जानने और देखने लगा। नीची दिशा में रनप्रभा पृथ्वी में लोलुपच्युत नरक तक जानने और
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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