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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १६५ के पास जाकर बन्दना नमस्कार करके प्रश्न पूछे । इसके बाद परम आनन्दित होते हुए भगवान् को फिर वन्दना की । कोष्ठक नामक चैत्य से निकल कर श्रावस्ती की ओर प्रस्थान किया । मार्ग में शंख ने दूसरे श्रावकों से कहा- देवानुप्रियो ! घर जाकर आहार आदि सामग्री तैयार करो। हम लोग पाक्षिक पौषध * (दया) अङ्गीकार करके धर्म की आराधना करेंगे। सब श्रावकों ने शंख की यह बात मान ली । .. इसके बाद शंख ने मन में सोचा - 'अशनादि का आहार करते हुए पाक्षिक पौषध का आराधन करना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है। मुझे तो अपनी पौषधशाला में मरिण और सुवर्ण का त्याग करके, माला, उद्वर्तन (मसी आदि लगाना) और 1. विलेपन आदि छोड़कर, शस्त्र और मूसल आदि का त्याग कर, दर्भ का संथारा (बिस्तर) बिछाकर, अकेले बिना किसी दूसरे की सहायता के पौध की आराधना करनी चाहिए ।' यह सोच कर वह घर आया और अपनी स्त्री के सामने अपने विचार प्रकट किये। फिर पौधशाला में जाकर विधिपूर्वक पौष ग्रहण करके बैठ गया । दूसरे श्रावकों ने अपने अपने घर जाकर अशन आदि तैयार कराए। एक दूसरे को बुलाकर कहने लगे- हे देवानुप्रियो ! हमने पर्याप्त अनादि तैयार करवा लिये हैं, किन्तु शंखजी अभी तक नहीं आए। इसलिए उन्हें बुला लेना चाहिये ।. इस पर पोखली श्रमणोपासक बोला- 'देवानुप्रियो ! आप * माटम चौदस या पक्खी आदि पर्व पौषध कहलाते हैं । उन तिथियों पर पन्द्रह पन्द्रह दिन से जो पोसा किया जाय वह पाक्षिक पौषध है। इसी को दया कहते हैं। छः कायों की दया प लते हुए सब प्रकार के सावय व्यापार का एक करण एक योग या दो करण तीन योग से त्याग करना दया है।
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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