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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह मैं एक एक दाना डालता जाय। जब शलाका पल्य इतना भर जाय कि उसमें एक भी दाना और न पड़ सके और अनवस्थित पल्य भी पूरा भरा हो तो शलाका पल्य के दानों को एक द्वीप तथा एक समुद्र में डालता हुआ फिर खाली करे । उसके खाली हो जाने के बाद एक दाना प्रतिशलाका पल्य में डाल दे । शलाका पल्य को फिर पहले की तरह नए नए अनवस्थित पल्यों की कल्पना करता हुआ भरे । जब फिर भर जाय तो उसे द्वीप समुद्रों में डालता हुआ फिर खाली करे और एक दाना प्रतिशलाका पल्य में डाल दे । इस प्रकार प्रतिशलाका पल्य को भर दे | उसे भरने के बाद फिर उसी तरह खाली करे और एक दाना महाशलाका पल्य में डाल दे । प्रतिशलाका पल्य को फिर पहले की तरह शलाका पल्यों से भरे । इस प्रकार जब शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका और अनवस्थित पल्य सरसों से इतने भर जायँ कि एक भी दाना और न आ सके तो उन सब पल्यों तथा द्वीप समुद्रों में जितने दाने पड़ें उतना उत्कृष्ट संख्यात होता है। असंख्येयक के भेदों का स्वरूप इस प्रकार है (क) जघन्यपरीता संख्येयक - उत्कृष्ट संख्येयक से एक अधिक हो जाने पर जघन्य परीतासंख्येयक होता है । १४५ (ख) मध्यम परीता संख्येयक- जघन्य की अपेक्षा एक अधिक से लगाकर उत्कृष्ट से एक कम तक मध्यम परीता संख्येयक होता है ! (ग) उत्कृष्ट परीता संख्येयक- जघन्य परीता संख्येयक की संख्या जितनी जघन्य संख्याएं रक्खे। फिर पहले से गुणन करते हुए जितनी संख्या प्राप्त हो उससे एक कम को उत्कृष्ट परीतासंख्येयक कहते हैं । जैसे- मान लिया जाय जघन्य परीता संख्येयक '५ है, तो उतने ही अर्थात् पाँच पाँचों को स्थापित करे (५, ५, ५, ५, ५) । अब इनको गुणा करता जाय। पहले पाँच को दूसरे
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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