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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ८५ इसलिए वह खिन्न होता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की पटुता वाला जीव अपनी बुद्धि से सूक्ष्म, मूक्ष्मतर वस्तुओं का विचार करता है। दूसरों से अपने को ज्ञान में बढ़ा चढ़ा देख वह हर्ष का अनुभव करता है । इसी प्रकार प्रगाढ दर्शनावरणीय कर्म के उदय होने पर जीव जन्मान्ध होता है और महादुःख भोगता है। दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम की पटुता से जीव निर्मल स्वस्थ चन द्वारा वस्तुओं को यथार्थरूप में देखता हुआ प्रसन्न होता है । इसीलिए ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के बाद तीसरा वेदनीय कर्म कहा गया। वेदनीय कर्म इष्ट वस्तुओं के संयोग में सुख और अनिष्ट वस्तुओं के संयोग में दुःख उत्पन्न करता है। इससे संसारी जीवों के राग द्वेष होना स्वाभाविक है । राग और द्वेष मोह के कारण हैं। इसलिए वेदनीय के बाद मोहनीय कर्म कहा गया है । मोहनीय कर्म से मूढ़ हुए प्राणी महारंभ, महापरिग्रह आदि में आसक्त होकर नरकादि की आयु वाँधते हैं। इसलिये मोहनीय के बाद आयुकर्म कहा गया। नरकादि आयुकर्म के उदय होने पर अवश्य ही नरक गति आदि नामकर्म की प्रकृतियों का उदय होता है। अतएव आयुकमे के बाद नामकर्म कहा गया है। नामकर्म के उदय होने पर जीव उच्च या नीव गोत्र में से किसी एक का अवश्य ही भोग करता है। इसलिए नामकर्म के बाद गोत्रकर्म कहा गया है। गोत्र कर्म के उदय होने पर उच्च कुल में उत्पन्न जीव के दानान्तराय, लाभान्तराय आदि रूप अन्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है तथा नीच कुल में उत्पन्न हुए जीव के दानान्तरायादि का उदय होता है । इसलिए गोत्र के बाद अन्तराय कर्म कहा गया है। कर्मवाद का महत्त्व- जैन दर्शन की तरह अन्य दर्शनों में
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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