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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ११ उस समझने वाले से यदि कोई पूछे कि इस गान का रस जैसे आपने समझा, मुझे भी कृपया समझा दीजिये । इसके उत्तर में वह समझदार पुरुष अपने वचन से राग रागिणी, स्वर, ताल, ग्राम आदि तो उस पुरुष को किसी तरह वचन द्वारा समझा सकता है । लेकिन उस आकर्षक गान का रस वचन से यथावत् नहीं समझा सकता, उसे अवक्तव्य कहते हैं । इस तरह सामान्य रूप से ये आठ पक्ष कहे गये हैं। अब इन्हीं आठ पक्षों को विशेष रूप से समझाने के लिये विस्तार पूर्वक वर्णन किया जाता है। नित्य अनित्य पक्ष की चौभङ्गी नित्य और अनित्य पक्ष पहले कहा जा चुका है, उसमें इस प्रकार चार भङ्ग होते हैं। जिसकी आदि और अन्त दोनों न हों, वह अनादि अनन्त रूप प्रथम भङ्ग है । जिस चीज की आदि नहीं है किन्तु अन्त है वह अनादि सान्त रूप द्वितीय भङ्ग है । जिसकी आदि और अन्त दोनों हैं, वह सादि सान्त नामक तृतीय प्रकार है। जिसकी आदि है किन्तु अन्त नहीं है, वह सादि अनन्त रूप चतुर्थ भङ्ग है । जीव द्रव्य में चौभङ्गी उपरोक्त चारों भङ्गों को छह द्रव्यों में इस रीति से समझना चाहिये । जीव में ज्ञानादि गुण अनादि अनन्त हैं अर्थात् नित्य हैं । मोक्ष जाने वाले भव्य जीव के कर्म का संयोग अनादि सान्त है । क्योंकि कर्म अनादि से लगे हुए हैं, परन्तु भव्य जीव के मोक्ष चले जाने पर उन कर्मों का सम्बन्ध बिलकुल नष्ट हो जाता है । जीव जन्मान्तर करता हुआ कभी देवत्व, नारकत्व, मनुष्यत्व और तिर्यञ्श्च 1
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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