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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 391 जाएंगे। इस प्रकार मानने से कञ्चुकी का दृष्टान्त साध्यविकल है, क्योंकि प्रतिदेशव्यापकता रूप जोसम्बन्ध तुम जीव के साथ कर्मों का सिद्ध करना चाहते हो, वह कञ्चुकी में नहीं है।' यदि शरीर के चारों तरफ कर्मों का सम्बन्ध मानते होतो एक भव से दूसरे भव में जाते हुए जीव के साथ कर्म नहीं रहेंगे। शरीर के मैल की तरह वे भी शरीर के साथ ही छूट जायेंगे। कर्म न रहने से जीवों का दूसरे भव में जन्म नहीं होगा और इस तरह संसार का नाश होजायगा। ___ यदि बिना कर्म के भी संसार मान लिया जाय तो व्रत तपस्या आदि के द्वारा की जाने वाली कर्मों की निर्जरा व्यर्थ हो जायगी, क्योंकि संसार तो कर्म रहित होने पर भी रहेगा। इस तरह सिद्धों को भी संसार में आना पड़ेगा। __दूसरी बात यह है कि अगर कञ्चुकी की तरह शरीर के बाहर ही कर्मों का सम्बन्ध माना जाय तो शरीर के अन्दर होने वाली शूल, वात आदि की वेदना नहीं होनी चाहिये, क्योंकि वेदना का कारण कम वहाँ नहीं है। अगर बिना कारण भी अन्तर्वेदना होने लगे तो सिद्धों को भी होनी चाहिए। शंका-लकड़ी वगैरह के आघात से बाह्य वेदना उत्पन्न होती है उसी से भीतरी वेदना भी हो जाती है। ___उत्तर- यह ठीक नहीं है। लकड़ी आदि आघात के बिना अन्तर्वेदना होती है। बाहर किसी तरह की पीड़ा न होने पर भी अन्दर की पीड़ा देखी जाती है / इसलिये नियम नहीं बनाया जा सकता कि बाह्य वेदना अन्तर्वेदना को पैदा करती है / इस लिये अन्तर्वेदना का कारण कर्म वहाँ सिद्ध होजाता है। ___यह कहना भी ठीक नहीं है कि कमें बाहर रहकर भी हृदय में शूल को पैदा कर देता है, क्योंकि कर्म यदि अपनी जगह के
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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