SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह होते हैं उन्हें बद्ध कहते हैं। लोहे की पत्ती से लपेटे हुए सूचीसमूह की तरह रहने वाले कर्म बद्धस्पृष्ट कहलाते हैं / सूइयों को आग में तपाकर हथोड़े से पीटने पर उन से बने हुए पिण्ड की तरह जो कर्म होते हैं उन्हें बद्ध-स्पृष्ट-निकाचित कहा जाता है। शंका- अनिकाचित और निकाचित कर्मों में क्या भेद है ? उत्तर-- अनिकाचित कर्मों में अपवर्तनादि आठ करण होते हैं। वे इस प्रकार हैं-अपवर्तना, उद्वर्तना, संक्रमण, क्षपण, उदीरणा उपश्रावणा, निवृत्ति और निकाचना। निकाचित कर्मों के ये आठ नहीं होते / यही निकाचित और अनिकाचित कर्मोंका भेद है। अपवर्तनादि की विशेष व्याख्या आठवें बोल में लिखी जायगी। कर्मों का सम्बन्ध जीव के साथ दूध पानी की तरह या अग्नि और लोहपिण्ड की तरह होता है / यह बात विन्ध्य से सुन कर गोष्ठामाहिल कहने लगा, यह व्याख्यान ठीक नहीं है। यदि जीवप्रदेश और कर्मतादात्म्य सम्बन्ध से रहेंगे तो वे कभी अलग नहीं हो सकेंगे। इस तरह मोक्ष का अभाव हो जायगा। पूर्वपक्ष की विशेष पुष्टि के लिए अनुमान दिया जाता है। कर्म जीव से अलग नहीं होते, क्योंकि दोनों का तादात्म्य है / जो जिस के साथ तादात्म्य से रहता है वह उससे अलग नहीं होता / जैसे-जीव से जीव के प्रदेश / जीव और कर्मों का भी तादात्म्य (अविभाग) है, इसलिए जीव से कर्म अलग नहीं हो सकेंगे और किसी को मोक्ष नहीं मिलेगा। इसलिए इन दोनों का तादात्म्य बताने वाला व्याख्यान ठीक नहीं है। इसलिए कर्मों का सम्बन्ध क्षीरनीर या तप्तायःपिण्ड की तरह न मानकर साँप और कांचली की तरह मानना चाहिए। जिस तरह कांचली सांप को छूती हुई उसके साथ रहती है। उसी तरह कर्म भी रहते हैं। सांप जिस तरह कांचली छोड़ देता है उसी तरह कर्म भी छूट
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy