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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 367 ने एक समय में एक ही क्रिया होने का उपदेश दिया था।क्या तुम उनसे भी बढ़ गए हो ? जो एक समय में अनेक क्रियाओं का अनुभव बतलाते हो / इस झूठे उपदेश को छोड़ दो। नहीं तो तुझे मार डालूँगा / भय और युक्ति दोनों द्वारा समझाया जाने पर उसने यत की बात मान ली / अपनी मिथ्या भ्रान्ति के लिए पश्चात्ताप करता हुआ गुरु की सेवा में चला गया / __शंका- आर्यगङ्ग का कहना है कि एक साथ दो क्रियाओं का होना सम्भव है, क्योंकि यह बात अनुभव सिद्ध है। जैसे मेरे पैर में सरदी और सिर में गरमी का एक साथ अनुभव / इस अनुमान से एक साथ दो क्रियाओं का होना सिद्ध होता है। उत्तर- एक साथ दो क्रियाओं का अनुभव प्रसिद्ध है। सब जगह अनुभव क्रम से ही होता है / समय के अत्यन्त सूक्ष्म होने से तथा मन के चञ्चल, अतीन्द्रिय तथा शीघ्रगति वाला होने से ऐसी भ्रान्ति होती है कि अनुभव एक साथ ही हो रहा है / इस भ्रान्ति के आधार पर कुछ भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतीन्द्रिय पुद्गल स्कन्धों से बना हुआ होने के कारण मन सूक्ष्म है / शीघ्र संचरण स्वभाव वाला होने से आशुगामी है। स्पर्शादि द्रव्येन्द्रिय से सम्बन्ध रखने वाले जिस देश से मन का सम्बन्ध जिस समय जितना होता है, उस समय उतना ही ज्ञान होता है / शीतोष्ण वगैरह का ज्ञान भी वहीं होगा जहाँ इन्द्रिय के साथ मन का पदार्थ से सम्बन्ध होगा। जहाँमन का सम्बन्ध नहीं होता वहाँ ज्ञान भी नहीं होता। इस कारण से दूर और भिन्न देशों में रही हुई दो क्रियाओं का अनुभव एक साथ और एक समय नहीं हो सकता / पैर और सिर में होने वाले भिन्न भिन्न शीतलता और उष्णता के अनुभव भी एक साथ नहीं हो सकते / इसके लिए अनुमान देते हैं- पैर और सिर में होने
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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