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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 363 पान करेगा उसे तृप्ति न होगी, क्योंकि भोजन करने वाला तो नष्ट होगया / इसी तरह थकावट, ग्लानि, साधर्म्य, वैधर्म्य, प्रत्यभिज्ञान, अपने रखे हुए को दुवारा ढूँढना, स्मृति, अध्ययन, ध्यान, भावना इत्यादि कुछ भी नहीं बन सकेंगे क्योंकि सभी में चित्त, आत्मा या शरीर की स्थिरता आवश्यक है। शंका- तृप्त्यादि की वासना लेकर पूर्व पूर्व क्षण से उत्तरोत्तर क्षण पैदा होता है ।अन्त में उसी वासना के कारण तृप्ति अपनी क्रिया को पहुँच जाती है / इस तरह क्षणिक पक्ष में ही तृप्त्यादि उपपन्न होते हैं / नित्य में यह बात नहीं हो सकती क्योंकि वह हमेशा एक सरीखा रहता है / न कभी नष्ट होता है न उत्पन्न / ___ उत्तर-पूर्व पूर्वक्षण से उत्तरोत्तर क्षण में तृप्त्यादि की वृद्धि का कारण वासना नहीं हो सकती, क्योंकि वासना अगर क्षणों से अभिन्न है तो उन्हीं के साथ नष्ट हो जायगी। अगर वह उत्तरोत्तर क्षणों में अनुवृत्त होती है तो पूर्व पूर्वक्षण का सर्वनाश सिद्ध नहीं होता / तणिकवाद में दीक्षा लेने का भी कोई प्रयोजन नहीं रह जाता / दीक्षा मोक्ष प्राप्ति के लिए ली जाती है / मोक्ष इस मत में नाश स्वरूप है और नाश सभी वस्तुओं का स्वतः सिद्ध है / फिर उसके प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है / अगर मोक्ष को नित्य माना जाय तो इसीसे क्षणिकवाद खण्डित हो जायगा। शंका-विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप इन पाँचस्कन्धों की क्षणपरम्परा का नाश होजाना ही मुक्ति है। इसी स्कन्ध पञ्चक का समुच्छेद करने के लिए दीक्षादि का विधान है। उत्तर- जो जीव दूसरे ही क्षण में सर्वथा नष्ट हो जाता है उसे सन्तानपरम्परा का नाश करने से क्या प्रयोजन, जिसके लिए उसे दीक्षा लेनी पड़े ? दूसरी बात यह है कि जो जीव सर्वथा
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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