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________________ 362 श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला भिन्न उत्तरक्षण भी उसके समान मान लिया जाता है तो संसार की सारी वस्तुएँ उसके समान हो जायेंगी, क्योंकि अनन्वयित्व और अन्यत्व सब जगह समान हैं। अगर यह कहा जाय कि संसार की वस्तुओं में देशादि का व्यवधान (अन्तर) होने से उनकी समानता नहीं हो सकती। उत्तरक्षण तो पूर्वक्षण के साथ सम्बद्ध है। यह भी ठीक नहीं है। सर्वथा नाश मान लेने पर पूर्व और उत्तरक्षण का सम्बन्ध नहीं बन सकता / सम्बन्ध के अलग मान लेने पर उसी को अन्वयी और स्थायी मानना पड़ेगा। क्षणिकवादियों पर एक और दोष है। एक ही चित्त जब असंख्य समय तक ठहरता है तभी शास्त्र का ज्ञान हो सकता है। प्रत्येक क्षण में पूर्व पूर्व चित्त के नष्ट होने पर नए नए चित्त के द्वारा शास्त्र की बातों का ज्ञान नहीं हो सकता। जिस चित्त और इन्द्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का ज्ञान होगा वे तो ज्ञान के समय ही नष्ट हो जायँगे। इस तरह उत्तरोत्तर ज्ञान का पूर्व पूर्व ज्ञान के साथ कुछ भी सम्बन्ध न होने से सारी विचारधारा विशृङ्खलित हो जायगी। ___ शास्त्रज्ञान के लिए पदज्ञान और पदज्ञान के लिए अक्षर ज्ञान आवश्यक हैं। पूर्व पूर्व अक्षरज्ञान से सहकृत उत्तरोत्तर ज्ञान पदजन्य ज्ञान को पैदा करता है / इस में असंख्य समय लग जाते हैं। इसी तरह पदज्ञान वाक्यज्ञान को। प्रतिक्षण निरन्वयनाश होने पर पदज्ञान या वाक्यज्ञान नहीं हो सकेगा। फिर तुम्हारा यह कहना असंगत हो जायगा कि शास्त्र के द्वारा वस्तुओं का क्षणिकत्व जाना जाता है, क्योंकि क्षणिकवाद में शास्त्र का अर्थज्ञान ही अनुपपन्न है। क्षणिकवाद में और भी बहुत सी अनुपपत्तियाँ हैं / प्रत्येक समय में वस्तु का नाश मान लेने से जो मनुष्य भोजन या जल
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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