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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 353 इस तरह ऋजुसूत्र नय से क्रियमाण कृत कहलाता है और . व्यवहार नय से अकृत / ऋजुमूत्र निश्चय नय का ही भेद है। (2) जीवप्रादेशिकदृष्टि- भगवान् महावीर के सर्वज्ञ होने से सोलह वर्षे बाद ऋषभपुर नामक नगर में जीवप्रादेशिकदृष्टि नामक निह्नव हुआ / इस नगर का दूसरा नाम राजगृह था। चौदह पूर्व के ज्ञाता वसु नाम के आचार्य विहार करते हुए राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य (उद्यान) में आये / उनका तिष्यगुप्त नामक एक शिष्य था / आत्मप्रवाद नाम के पूर्व को पढ़ते हुए तिष्यगुप्त ने निम्नलिखित बातें पढ़ी "हे भगवन् / क्या जीव का एक प्रदेश जीव है ?यह अर्थ ठीक नहीं है। इसी तरह हे भगवन् ! क्या दो, तीन, दस, संख्यात या असंख्यात जीवप्रदेश जीव हैं ? यह भी यथार्थ नहीं है / जिस में एक प्रदेश भी कम हो उसे जीव नहीं कहा जा सकता। यह बात क्यों ? क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाश प्रदेशों के समान जो जीव है उसे ही जीव कहा जा सकता है। तिष्यगुप्त ने इस का अभिप्राय न समझा। मिथ्यात्वोदय के कारण उसे विपरीत धारणा हो गई। एक प्रदेश भी जीव नहीं है।' इसी तरह संख्यात असंख्यात प्रदेश भी जीव नहीं हैं / अन्तिम एक प्रदेश के बिना सब निर्जीव हैं। अतः वही एक प्रदेश जीव है जो जीव को पूर्ण बनाता है / इस के अतिरिक्त सभी प्रदेश अजीव हैं।' उसने समझा अन्तिम प्रदेश के होने पर ही जीवत्व है / उस के बिना नहीं / इसलिए वही जीव है। गुरु ने समझाना शुरू किया-जिस तरह दूसरे प्रदेश जीव नहीं हैं, उसी तरह अन्तिम प्रदेश भी जीव नहीं हो सकता क्योंकि सभी प्रदेश समान हैं। यदि यह कहा जाय कि अन्तिम प्रदेश पूरक (पूरा करने वाला) है इसलिए उसे ही जीव माना जाता है
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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