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________________ ३३० श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला अठानवे हजार पाँच सौ पन्द्रह प्रकीर्णक हैं ।दोनों को मिलाकर तीसरी नरक में पन्द्रह लाख नरकावास हैं। ___पंकप्रभा में सात प्रतर हैं । पहिले प्रतर में प्रत्येक दिशा में सोलह तथा प्रत्येक विदिशा में पन्द्रह आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। बीच में एक नरकेन्द्रक है । कुल मिलाकर १२५ होते हैं। याकी छह प्रतरों में पहिली की तरह आठ आठ कम होते जाते हैं। कुल मिलाकर सात सौ सात आवलिकापविष्ट नरकावास हैं । बाकी नौ लाख निन्यानवे हजार दो सौ तिरानवे प्रकीर्णक हैं । कुल मिलाकर दस लाख नरकावास हैं। धूमप्रभा में पांच प्रतर हैं । पहले प्रतर की प्रत्येक दिशा में नौ नरकावास हैं और प्रत्येक विदिशा में आठ । बीच में एक नरकेन्द्रक है। कुल मिलाकर ६६ होते हैं । बाकी चार प्रतरों में आठ आठ कम होते जाते हैं। कुल मिलाकर आपलिकामविष्ट दो सौ पैंसठ हैं । बाकी दो लाख निन्यानवे हजार दो सौ पैंतीस प्रकीर्णक हैं। पांचवीं नारकी में कुल तीन लाख नरकावास हैं । तमःप्रभा में तीन प्रतर हैं। पहिले प्रतर की प्रत्येक दिशा में चार और विदिशा में तीन नरकावास हैं । बीच में एक नरकेन्द्रक है । कुल उनत्तीस हुए । बाकी में आठ आठ कम हैं। तीनों प्रतरों में तरेसठ नरकावास पावलिकापविष्ट हैं । बाकी निन्यानवे हजार नौ सौ बत्तीस प्रकीर्णक हैं। कुल मिलाकर छठी नारकी में पाँच कम एक लाख नरकावास हैं। सातवीं में प्रतर नहीं हैं और पाँच ही नरकावास हैं । प्रत्येक पृथ्वी के नीचे घनोदधि, घनवात, तनुवात तथा आकाश हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी का खर काण्ड सोलह हजार योजन मोटा है। इसी के सोलह विभाग रूप रत्न आदि काण्ड एक एक हजार योजन की मोटाई वाले हैं । रवप्रभा का पंकबहुल नाम
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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