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________________ २६८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ५३३.. भयस्थान सात मोहनीय कर्म की प्रकृति के उदय से पैदा हुए आत्मा के परिणामविशेष को भय कहते हैं। इस में प्राणी डरने लगता है । भय के कारणों को भयस्थान कहते हैं। वे सात हैं । भय की अवस्था वास्तविक घटना होने से पहिले उसकी सम्भावना से पैदा होती है । भयस्थान सात इस प्रकार हैं(१) इहलोकभय-अपनी ही जाति के प्राणी से डरना इहलोकभय है। जैसे मनुष्य का मनुष्य से, देव का देव से. तिर्यश्च का तिर्यश्च से और नारकी का नारकी से डरना । (२.) परलोक भय- दूसरी जाति वाले से डरना परलोकभय है। जैसे मनुष्य का तिर्यश्च या देव से अथवा तिर्यश्च का देव या मनुष्य से डरना परलोक भय है। (३) आदानभय- धन की रक्षा के लिए चोर आदि से डरना। (४) अकस्माद्भय- बिना किसी बाह्य कारण के अचानक डरने लगना अकस्माद्भय है। (५) वेदनाभय- पीडा से डरना। (६) मरणभय- मरने से डरना। (७) अश्लोकभय- अपकीर्ति से डरना। (ठाणांग सूत्र ५४६) (समवायांग ७ वां) ५३४- दुषमाकाल जानने के स्थान सात उत्सर्पिणी काल का दूसरा आरा तथा अवसर्पिणी का पाँचवा आरा दुषमा काल कहलाता है। यह इक्कीस हजार वर्ष तक रहता है । सात बातों से यह जाना जा सकता है कि अब दुषमा काल शुरू होने वाला है या सात बातों से दुषमा काल का प्रभाव जाना जाता है। दुषमा काल आने पर(१) अकालवृष्टि होती है । (२) वर्षाकाल में जिस समय
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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