SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २५३ हो उसके लिए देशाटन का नियम नहीं है। देशाटन से वह समकित में दृढ होता है । दूसरों को भी दृढ करता है । भिन्न भिन्न देशों में फिरने से अतिशय श्रुतज्ञानी आचायों के दर्शन से मूत्रार्थ सम्बन्धी और समाचारी सम्बन्धी ज्ञान की वृद्धि होती है । भिन्न भिन्न देशों की भाषा और आचार का ज्ञान होता है । इस से वह अलग अलग देश में पैदा हुए शिष्यों को उनकी निजी भाषा में उपदेश दे सकता है। फिर वोध प्राप्त किये हुए शिष्यों को दीक्षा देता है । उन्हें अपनी उपसम्पदा अर्थात् नेसराय में रखता है। शिष्य भी यह समझ कर कि उनका गुरु आचार्य सब भाषाओं तथा आचार में कुशल है, उस में श्रद्धा रखते हैं। इस प्रकार आचार्य होने लायक साधु को बारह वर्ष तक अनियतवास कराना चाहिए । बहुत से शिष्य प्राप्त होने के बाद आचार्य पद स्वीकार करके वह साधु अपना और दूसरों का उपकार करता है। लम्बी दीक्षा पालने के बाद वह अपने स्थान पर योग्य शिष्य को बैठा कर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर विशेष रूप से अग्रसर होता है। यह अनुष्ठान दो प्रकार का है (१) संलेखना आदि करके भक्तपरिज्ञा, इंगिनी (इङ्गित ) या पादोपगमन अनुष्ठान के द्वारा मरण अंगीकार करे । (२) जिनकल्प- परिहारविशुद्धि अथवा यथालिंदक कल्प अङ्गीकार करे । इन दोनों प्रकार के अनुष्ठानों में से प्रत्येक की समाचारी जान कर प्रवृत्ति करे। पहिले प्रकार का अनुष्ठान करने वाला आचार्य, पक्षी जिस प्रकार अपने बच्चों की पालना करता है, उसी तरह शिष्यों को तैयार करके बारह वर्ष की संलेखना इस विधि से करे चार वर्ष तक बेला तेलाआदि विचित्र प्रकार का तप करे ।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy