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________________ २४८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला ५१८ - अवग्रहप्रतिमाएं (प्रतिज्ञाएं ) सात, __साधु जो मकान, वस्त्र, पात्र, आहारादि वस्तुएं लेता है उन्हें अवग्रह कहते हैं । इन वस्तुओं को लेने में विशेष प्रकार की मर्यादा करना अवग्रहमतिमा है। किसी धर्मशाला अथवा मुसाफिरखाने में ठहरने वाले साधु को मकान मालिक के आयतन तथा दूसरे दोषों को टालते हुए नीचे लिखी सात प्रतिमाएं यथाशक्ति अंगीकार करनी चाहिए। (१) धर्मशाला वगैरह में प्रवेश करने से पहिले ही यह सोच ले कि "मैं अमुक प्रकार का अवग्रह लूँगा । इस के सिवाय न लँगा" यह पहली प्रतिमा है। (२) "मैं सिर्फ दूसरे साधुओं के लिए स्थान आदि अपग्रह को ग्रहण करूँगा और स्वयं दूसरे साधु द्वारा ग्रहण किए हुए अवग्रह पर गुजारा करूँगा"। (३) "मैं दूसरे के लिए अवग्रह की याचना करूँगा किन्तु स्वयं दूसरे द्वारा ग्रहण किए अवग्रह को स्वीकार नहीं करूंगा"। गीला हाथ जब तक सूखता है उतने काल से लेकर पांच दिन रात तक के समय को लन्द कहते हैं। लन्द तप को अंगीकार कर के जिनकल्प के समान रहने वाले साधु आलन्दिक कहलाते हैं। वे दो तरह के होते हैं- गच्छपतिबद्ध और स्वतन्त्र । शास्त्रादि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब कुछ साधु एक साथ मिल कर रहते हैं तो उन्हें गच्छपतिबद्ध कहा जाता है। तीसरी प्रतिमा प्रायः गच्छप्रतिबद्ध साधु अङ्गीकार करते हैं । वे आचार्य आदि जिन से शास्त्र पढ़ते हैं उनके लिए तो वस्त्रपात्रादि अवग्रह ला देते हैं पर स्वयं किसी दूसरे का लाया हुआ ग्रहण नहीं करते। (४) मैं दूसरे के लिए अवग्रह नहीं मांगँगा पर दूसरे के द्वारा
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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