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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २४७ में दे दिया गया है। महत्तरागार का अर्थ है- विशेष निर्जरा आदि खास कारण से गुरु की आज्ञा पाकर निश्चय किए हुए समय के पहिले ही पच्चक्खाण पार लेना। (हरिभद्रीयावश्यक पृष्ठ ८५२ पोरिसी पचक्खाण की टीक्य) ५१७ - एगहाण (एकस्थान) के सात आगार दिन रात में एक आसन से बैठ कर एक ही बार अाहार करने को एकस्थान पञ्चक्खाण कहते हैं । इस पञ्चक्खाण में गरम (फासुक) पानी पिया जाता है। रात को चौविहार किया जाता है और भोजन करते समय एक बार जैसे बैठ जाय उसी प्रकार बैठे रहना चाहिए । हाथ पैर फैलाना या संकुचित करना इस में नहीं कल्पता । यही एकासना और एकस्थान में भेद है । इस में सात आगार हैं- (१) अण्णाभोग, (२) सहसागार, (३) सागारियागार, (४) गुर्वभ्युत्थान, (५) परिहावणियागार, (६) महत्तरागार, और (७) सव्वसमाहिवत्तियागार। (३) सागारियागार-जिन के दिखाई देने पर शास्त्र में आहार करने की मनाही है उनके आजाने पर स्थान बदल कर दूसरी जगह चले जाना सागारियागार है। (४) गुर्वभ्युत्थान- किसी पाहुने मुनि या गुरु के आने पर विनय सत्कार के लिए उठना गुर्वभ्युत्थान है। (५) परिहावणियागार- अधिक हो जाने के कारण यदि आहार को परठवणा पड़ता हो तो परठवण के दोष से बचने के लिए उस आहार को गुरु की आज्ञा से ग्रहण कर लेना। शेष आगारों का स्वरूप पहिले दिया जा चुका है। ये सात आगार साधु के लिए हैं। (हरिभद्रीयावश्यक पृष्ट ८५२ एकासना पचक्खाण की टीका)
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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