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________________ ૨૪૨ श्रीसेठिाया जैन मन्प्रथमला उद्धवणापहावण खेत्तोवहिमग्गणासु अविसाई। सत्तस्थतदभयविऊ गणवच्छो एरिसो होइ॥ अर्थात्- दूर विहार करने, शीघ्र चलने तथा क्षेत्र और दूसरी उपधियों को खोजने में जो घबराने वाला न हो, सूत्र अर्थ और तदुभय रूप आगम का जानकार हो ऐसा साधु गणावच्छेदक होता है। (ठाणांग सूत्र १७७ टीका) ५१४- आचार्य तथा उपाध्याय के सात संग्रहस्थान, - आचार्य और उपाध्याय सात बातों का ध्यान रखने से ज्ञान अथवा शिष्यों का संग्रह कर सकते हैं , अर्थात् इन सात बातों का ध्यान रखने से वे संघ में व्यवस्था कायम रख सकते हैं, दूसरे साधुओं को अपने अनुकूल तथा नियमानुसार चला सकते हैं। (१)आचार्य तथा उपाध्याय को आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग करना चाहिए। किसी काम के लिए विधान करने को आज्ञा कहते हैं, तथा किसी बात से रोकने को अर्थात् नियन्त्रण को धारणा कहते हैं। इस तरह के नियोग (आज्ञा) या नियन्त्रण के अनुचित होने पर साधु आपस में या आचार्य के साथ कलह करने लगते हैं और व्यवस्था टूट जाती है । अथवा देशान्तर में रहा हुआ गीतार्थ साधु अपने अतिचार को गीतार्थ आचार्य से निवेदन करने के लिए अगीतार्थ साधु के सामने जो कुछ गृढार्थ पदों में कहता है उसे आज्ञा कहते हैं । अपराध की बार वार आलोचना के बाद जो प्रायश्चित्त विशेष का निश्चय किया जाता है उसे धारणा कहते हैं। इन दोनों का प्रयोग यथारीति न होने से कलह होने का डर है, इसलिए शिष्यों के संग्रहार्थ इन का सम्यक् प्रयोग होना चाहिए। (२) आचार्य और उपाध्याय को रत्नाधिक की वन्दना वगैरह का सम्यक्प्रयोग कराना चाहिए । दीक्षा के बाद ज्ञान, दर्शन
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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