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________________ १३४ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला और केवलव्यतिरेकी । जिस हेतु के साथ साध्य की अन्वय और व्यतिरेक दोनों तरह की व्याप्तियों के उदाहरण मिल जायें वह अन्वयव्यतिरेकी है जैसे धृम के साथ अग्नि की व्याप्ति । जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ अग्नि है जैसे रसोईघर तथा जहाँ जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ वहाँ धूम भी नहीं है जैसे तालाब । इस तरह यहाँ अन्वय और व्यतिरेक दोनों तरह की व्याप्तियाँ घट सकती हैं इसलिए यह अन्वयव्यतिरेकी है , या जहाँ साधर्म्य और वैधये दोनों तरह के दृष्टान्त मिलते हों उसे अन्वयव्यतिरेकी कहते है। जहाँ सिर्फ अन्वय या साधर्म्य दृष्टान्त ही मिलता हो उसे केवलान्वयी कहते हैं । जहाँ सिर्फ व्यतिरेक या वैधर्म्य दृष्टान्त ही मिलता हो उसे व्यतिरेकव्याप्ति कहते है। __ हेत्वाभास पाँच हैं- सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम, और कालातीत । जिसमें किसी तरह का हेत्वाभास हो वह हेतु साध्य का साधक नहीं होता। जो हेतु साध्य तथा साध्य को छोड़ कर दूसरे स्थानों में भी रहे उसे सव्यभिचार या अनैकान्तिक कहते हैं जैसे- शब्द नित्य है क्योंकि वस्तु है। यहाँ वस्तुत्व रूप हेतु नित्य आकाश आदि में भी रहता है और अनित्य घट आदि में भी रहता है, इसलिए यह अनैकान्तिक है । विरुद्ध हेतु-- जो साध्य से उल्टी बात सिद्ध करे जैसे शब्द नित्य है, क्योंकि कृतक है । यहाँ कृतकत्व हेतु नित्यत्व रूप साध्य से विपरीत अनित्यत्व को ही सिद्ध करता है। प्रकरणसम या सत्पतिपत वह है जिस हेतु के विपरीत साध्य को सिद्ध करने वाला वैसा ही एक विरोधी अनुमान हो या जिस हेतु से साध्य की स्पष्टतया सिद्धि न हो। जैसे शब्द नित्य है, क्योंकि नित्य धर्मों वाला है। इसके
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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