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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह सम्बन्ध से रहते हैं । (३) संयुक्त समवेत समवाय- गुण और कर्म में रही हुई जाति का प्रत्यक्ष इस सम्बन्ध से होता है क्योंकि इन्द्रिय के साथ द्रव्य संयुक्त है, उस में गुण और कर्म समवेत हैं, गुण और कर्म में गुणत्व कर्मत्व आदि जातियाँ समवाय सम्बन्ध से रहती हैं । (४) समवाय- शब्द का प्रत्यक्ष समवाय सम्बन्ध से होता है क्योंकि श्रोत्रेन्द्रिय आकाशरूप है और शब्द आकाश का गुण होने से उसमें समवाय सम्बन्ध से रहता है । (५) समवेत समवाय- शब्दगत जाति का प्रत्यक्ष समवेतसमवाय से होता है क्योंकि श्रोत्र में शब्द समवेत है। और उस में शब्दव जाति समवाय सम्बन्ध से रहती है । (६) संयुक्त विशेषणता - अभाव का प्रत्यक्ष इस सम्बन्ध से होता है । क्योंकि चतु आदि के साथ भूतल संयुक्त है और उसमें घटाभाव विशेषण है । १३३ अनुमान के पाँच अङ्ग हैं- (१) प्रतिज्ञा - सिद्ध की जानेवाली बात का कथन । (२) हेतु - कारण का कथन । (३) उदाहरण | (४) उपनय हेतु की स्पष्ट सूचना । (५) निगमन- सिद्ध का कथन जैसे (१) पहाड़ पर अग्नि है (२) क्योंकि वहाँ धूंश्रा दिखाई देता है (३) जहाँ जहाँ धूंआ है वहाँ वहाँ है, जैसे रसोई घर में (४) पर्वत पर धूंआ है (५) इसलिए पर्वत पर है। हेतु दो प्रकार के होते हैं। एक तो वह जो साधर्म्य या सादृश्य के द्वारा साध्य की सिद्धि करता है। जैसे ऊपर कहा हुआ धूम हेतु । दूसरे वह जो वैधर्म्य द्वारा साध्य की सिद्धि करता है जैसे जड़ पदार्थों की निर्जीवता से शरीर में आत्मा की सिद्धि । आगे चल कर इन दो प्रकारों के स्थान पर तीन प्रकार माने गए हैं- अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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