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________________ ११० श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला केशिश्रमण-राजन् ! अगर उस समय वह पुरुष कहे कि थोड़ी देर ठहर जागो । मुझे अपने सम्बन्धियों से मिल लेने दो। मैं उन्हें शिक्षा दूँगा कि दुराचार का फल ऐसा होता है इसलिए इससे अलग रहना चाहिए। तो क्या तुम उसे थोड़ी देर के लिए छोड़ दोगे? राजा- भगवन् ! यह कैसे हो सकता है ? ऐसे अपराधी को दण्ड देने में मैं थोड़ी देर भी न करूंगा। केशिश्रमण- राजन् ! जिस तरह तुम उस अपराधी पुरुष को दण्ड देने में देरी नहीं करोगे, उसकी दीनता भरी प्रार्थना पर कुछ भी ध्यान नहीं दोगे, इसी तरह परमाधार्मिक असुर नारकी के जीवों को निरन्तर कष्ट देते रहते हैं। क्षणभर भी नहीं छोड़ते। इस लिए तुम्हारा दादा इच्छा होते हुए भी यहाँ नहीं आ सकता। (२) परदेशी- भगवन् ! मैं एक दूसरा उदाहरण देता हूँ। मेरी दादी (मातामही) श्रमणोपासिका थी । धर्म का तत्त्व समझती थी । जीवाजीवादि पदार्थों को जानती थी । दिन रात धार्मिक कृत्यों में लगी रहती थी। आपके शास्त्रों के अनुसार वह अवश्य स्वर्ग में गई होगी। वह मुझे बहुत प्यार करती थी । अगर उनका जीव शरीर से अलग होकर स्वर्ग में गया होता तो वह यहाँ अवश्य आती और मुझे पाप से होने वाले दुःख और धर्म से होने वाले सुख का उपदेश देती । किन्तु उसने कभी यहाँ आकर मुझे नहीं समझाया । इससे मैं समझता हूँ कि उनका जीव शरीर के साथ यहीं नष्ट हो गया। जीव और शरीर अलग अलग नहीं हैं। केशिश्रमण-राजन् ! जब तुम नहा धो कर, पवित्र वस्त्र पहिन किसी पवित्र स्थान में जा रहे हो, उस समय अगर कोई टट्टी
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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