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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह . १०९ जात्रा के बहाने राजा को उधर ले आया । राजा बहुत थक गया था इसलिए विश्राम करने मृगवन में चला गया। वहाँ केशिश्रमण और उनकी पर्षदा को देख कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। पहिले तो श्रमण और श्रावक सभी को मूर्ख समझा लेकिन चित्त सारथि के समझाने पर उसकी जिज्ञासा वृत्ति बढ़ी । वह केशिश्रमण के पास गया, नम्रता से एक स्थान पर बैठ गया और नीचे लिखे प्रश्न पूछने लगा। (१) राजा- हे भगवन् ! जैन दर्शन में यह मान्यता है कि प्रलग है और पुद्गल अलग है। मुझे यह मान्यता सत्य नहीं मालूम पड़ती । इसके लिए मैं एक प्रमाण देता हूँ। मेरे दादा (पितामह) इस नगरी के राजा थे। वे बहुत बड़े पापी थे । दिन रातं पाप कर्म में लिप्त रहते थे। आपके शास्त्रों के अनुसार मर कर वे अवश्य नरक में गए होंगे। __ वे मुझे बहुत प्यार करते थे । मेरे हित अहित और सुरव दुःख का पूरा ध्यान रखते थे। अगर वास्तव में शरीर को छोड़ कर उनका जीव नरक में गया होता तो मुझे सावधान करने के लिए वे अवश्य आते । यहाँ आकर मुझे कहते; पाप करने से नरक में भयङ्कर दुःख भोगने पड़ते हैं। लेकिन वे कभी नहीं आए । इससे मैं मानता हूँ उनका जीव शरीर के साथ यहीं नष्ट हो गया । शरीर से भिन्न कोई जीव नहीं है। ' केशिश्रमण- राजन् ! अगर तुम्हारी मूरिकान्ता रानी के साथ कोई विलासी पुरुष सांसारिक भोग भोगे तो तुम उसको क्या दण्ड दो ? राजा- भगवन् ! मैं उस पुरुष के हाथ पैर काट डालूँ । शूनी पर चढ़ा, या एक ही बार में उसके प्राण लेलँ ।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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