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________________ ओ सेठिया जैन ग्रन्थमाला (३) विनयविशुद्धि- मन, वचन और काया से संयत होते हुए प्रत्याख्यान के समय जितनी वन्दनाओं का विधान है तदनुसार वन्दनादि करना विनयविशुद्धि है। (४) अनुभाषणाविशुद्धि- प्रत्याख्यान करते समय गुरु के सामने हाथ जोड़ कर बैठना गुरु के कहे अनुसार पाठों को ठीक ठीक बोलना तथा गुरु के “वोसिरेहि" कहने पर “वोसिरामि” वगैरह यथा समय कहना अनुभाषणाविशुद्धि है। (५) अनुपालनाविशुद्धि-- भयङ्कर वन , दुर्भिक्ष, या बीमारी वगैरह में भी व्रत को ठीक ठीक पालना अनुपालनाविशुद्धि है। (६) भावविशुद्धि- राग, द्वेष तथा परिणाम रूप दोषों से रहित प्रत्याख्यान को पालना भावविशुद्धि है। इस प्रत्याख्यान से अमुक व्यक्ति की पूजा हो रही है, मैं भी ऐसा ही करूं जिससे पूजा जाऊँ। यह सोच कर प्रत्याख्यान करना राग है। मैं ऐसा प्रत्याख्यान करूं जिससे सब लोग मेरी ओर झुक जावें, दूसरे साधु का आदर सत्कार न हो, इस प्रकार किसी के प्रति द्वेष का भाव रखकर पच्चक्खाण करना द्वेष है। ऐहिक या पारलौकिक कीर्ति, वणे, यश, शब्द, धन आदि की प्राप्ति रूप किसी भी फल की इच्छा से पचक्खाण करने में परिणाम दोष है। ___ ऊपर की छः विशुद्धियों से सहित पचक्रवाण ही सर्वथा शुद्ध माना जाता है। (हरिभद्रीयावश्यक नियुक्ति प्रत्याख्यानाध्ययन गाथा १५८६) (भाष्य गाथा २४५ से २५३) ४८२- प्रत्याख्यान पालने के अङ्ग छः छः अङ्गों से प्रत्याख्यान की आराधना करनी चाहिए।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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