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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह उसी लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है । ( भगवती शतक १ उद्देशा २) (उत्तराध्ययन अध्ययन ३४) (प्रज्ञापना पद १७ ) (क्षेत्रलोक प्रकाश तीसरा सर्ग) (कर्मग्रन्थ चौथा ) (हरिभद्रीय आवश्यक पृष्ठ ६४४) ४७२ - पर्याप्त छः आहारादि के लिए पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उन्हें आहार, शरीर आदि रूप परिणमाने की आत्मा की शक्ति विशेष कोपर्याप्त कहते हैं । यह शक्ति पुद्गलों के उपचय से होती है । इस के छः भेद हैं— ७७ ( १ ) हार पर्याप्ति - जिस शक्ति से जीव आहार योग्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर उसे खल और रस रूप में बदलता है उसे आहार पर्याप्ति कहते हैं । (२) शरीर पर्याप्त जिस शक्ति द्वारा जीव रस रूप में परित आहार को रस, खून, मांस, चर्बी, हड्डी, मज्जा, और वी रूप सात धातुओं में बदलता है, उसे शरीर पर्याप्त कहते हैं । नीट आहार पर्याप्ति द्वारा बने हुए रस से शरीर पर्याप्ति द्वारा बना हुआ रस भिन्न प्रकार का है। शरीर पर्याप्ति द्वारा बनने वाला रस ही शरीर के बनने में उपयोगी होता है । -- (३) इन्द्रिय पर्याप्ति - जिस शरीर द्वारा जीव सात धातुओं मैं परिणत आहार को इन्द्रियों के रूप में परिवर्तित करता है उसे इन्द्रिय पर्याप्त कहते हैं । अथवा पाँच इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोग निवर्तित वीर्य्य द्वारा उन्हें इन्द्रिय रूप में लाने की जीव की शक्ति इन्द्रिय पर्याप्ति कहलाती है । ( ४ ) श्वासोवास पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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