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________________ ११८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला बात महन नहीं करता और विना विचारे अपने और पगए अनिष्ट के लिए हृदय में और बाहर जलता रहता है । (२) मानः-मान मोहनीय कर्म के उदय से जाति आदि गुणों में अहंकार बुद्धिरूप प्रात्मा के परिणाम को मान कहते हैं । मान वश जीव में छोटे बड़े के प्रति उचित नम्र भाव नहीं रहता । मानी जीव अपने को बड़ा समझता है । और दूसरों को तुच्छ ममझता हुआ उनको अवहेलना करता है। गर्व वश वह दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर सकता। मायाः-माया मोहनीय कर्म के उदय से मन, वचन, काया की कुटिलता द्वारा परवञ्चना अर्थात् दुसरे के माथ कपटाई, ठगाई, दगारूप आत्मा के परिणाम विशेष को माया कहते हैं। लोभ-लोभ मोहनीय कर्म के उदय से द्रव्यादि विषयक इच्छा, मूर्छा, ममत्व भाव, एवं तृष्णा अर्थात् अमन्तोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं। प्रत्येक कपाय के चार चार भेदः-- (१) अनन्तानुबन्धी (२) अप्रत्याख्यानावरण । (३) प्रत्याख्यानावरण (४) संज्वलन । अनन्तानुबन्धी:-जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है । उस कपाय को अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं । यह कपाय सम्यक्त्व का घात करता है। एवं जीवन पर्यन्त बना रहता है । इस कषाय से जीव नरक गति योग्य कर्मों का बन्ध करता है ।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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