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________________ श्री जैन सिद्धान बोल मंग्रह (४) परकोक (पूर्व भव ) में किये हुए अशुभ कर्म पग्लोक ( आगामी भव ) में दुःखरूप फल देते हैं । जैसे पूर्व भत्र में किये हुए अशुभ कर्मों से जीव कौवे, गीध आदि के भव में उत्पन्न होते है। उन के नरक योग्य कुछ अशुभ कर्म बंधे हुए होते हैं । और अशुभ कर्म करके वे यहां नरक योग्य अधूरे कर्मों को पूर्ण कर देते हैं। और इस के बाद नरक में जाकर दुःख भोगते हैं । इसी प्रकार परलोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक ( आगामी भव ) में सुखरूप फल देने वाले होते है । जैसे देव भव में रहा हुआ तीर्थंकर का जीव पूर्व भव के तीर्थकर प्रकृति र पशुभ कर्मों का फल देव भव के बाद तीर्थंकर जन्म में भोगेगा । यह चौथी निवेदनी कथा है । (ठाणांग ४ सूत्र २८२) १५८-कपाय की व्याख्या और भेदः-- कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आत्मा के परिणाम विशेष जो सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का धात करने हैं । कषाय कहलाते हैं । कषाय के चार भेदः (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया (४) लोभ । (१) क्रोधः-क्रोध मोहनीय के उदय से होने वाला, कृत्य अकृत्य के विवेक को हटाने वाला, प्रज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं । क्रोधवश जीव किसी की
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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