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________________ १०४ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला कन्दर्प भावना:-कन्दर्प करना अर्थात् अटाट्टहास करना,जोर से बात चीत करना, काम कथा करना, काम का उपदेश देना और उसकी प्रशंसा करना, कौत्कुच्य करना (शरीर और वचन से दूसरे को हंसाने की चेष्टा करना ) विस्मयोत्पादक शील स्वभाव रखना, हास्य तथा विविध विकथाओं से दूसरों को विस्मित करना कन्दर्प भावना है। याभियोगिकी भावनाः-मुख, मधुरादि रस और उपकरण आदि की ऋद्धि के लिए वशीकरणादि मंत्र अथवा यंत्र मंत्र (गंडा, तावीज़) करना, रक्षा के लिए भस्म, मिट्टी अथवा सूत्र से वसति आदि का परिवेष्टन रूप भूति कर्म करना आभियोगिकी भावना है। किल्विपिकी भावना:-ज्ञान, केवल ज्ञानी पुरुप, धर्माचार्य मंघ और माधुओं का अवर्णवाद बोलना तथा माया करना किल्विपिकी भावना है। आसुरी भावनाः-निरंतर क्रोध में भरे रहना, पुष्ट कारण के विना भूत, भविष्यत और वर्तमान कालीन निमित्त बताना आसुरी भावना है। इन चार भावनाओं से जीव उस उस प्रकार के देवों में उत्पन्न कगने वाले कर्म बांधता है । (उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ गाथा २६१) १४२-मंज्ञा की व्याख्या और भेदः-- चेतना:-ज्ञान का, असातावेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से पैदा होने वाले विकार से युक्त होना संज्ञा है।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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