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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १०३ १४० - तत्काल उत्पन्न हुआ नैरयिक मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता है । किन्तु चार बोलों से आने में असमर्थ है । (१) नवीन उत्पन्न हुआ नैरयिक नरक में प्रबल वेदना का अनुभव करता हुआ मनुष्य लोक में शीघ्र आने की इच्छा करता है । पर आने में असमर्थ है। (२) नवीन उत्पन्न नैरयिक नरक में परमाधामी देवताओं से सताया हुआ मनुष्य लोक में शीघ्र ही आना चाहता है । परन्तु आने में असमर्थ है। (२) तत्काल उत्पन्न नैरयिक नरक योग्य अशुभ नाम कर्म, मातावेदनीय आदि कर्मों की स्थिति क्षय हुए विना, विपाक भोगे विना और उक्त कर्म प्रदेशों के आत्मा से अलग हुए विना ही मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता है । परन्तु निकाचित कर्म रूपी जंजीरों से बँधा होने के कारण आने में अममय है । (४) नवीन उत्पन्न नैरयिक नरक आयु कर्म की स्थिति पूरी हुए बिना, विपाक भोगे विना और आयु कर्म के प्रदेशों के आत्मा से पृथक् हुए विना ही मनुष्य लोक में आना चाहता है । पर नरक आयु कर्म के रहते हुए वह आने में असमर्थ है | ( ठाणांग ४ सूत्र २४५ ) १४१ - भावना चारः- (१) कन्दर्प भावना । (२) (३) किल्चिषिकी भावना । (४) आसुरी भावना । भियोगिकी भावना ।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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