SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७ श्रा जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह अनिवृतिकरण में । और यह भी मन्तव्य है कि अपूर्वकरण में ग्रन्थि भेद आरम्भ होता है और अनिवृत्तिकरण में पूर्ण होता है । अपूर्वकरण दुबारा होता है या नहीं इस विषय में भी दो मत है। अनिवृत्तिकरणः-अपूर्वकरण परिणाम से जब राग द्वेष की गांठ टूट जाती है । तब तो और भी अधिक विशुद्ध परिणाम होता है । इस विशुद्ध परिणाम को अनिवृत्तिकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण करने वाला जीव समकित को अवश्य प्राप्त कर लेता है। (आवश्यक मलयगिरि गाथा १०६-१०७ टीका) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२०२ से १२१८) (प्रवचसारोद्धार गाथा १३०२ टीका) ( कर्मग्रन्थ दूसरा भाग) (आगमसार) ७६-मोक्ष मार्ग के तीन भेदः (१) सम्यगदर्शन (२) सम्यगज्ञान (३) सम्यक चारित्र । सम्यगदर्शन:-तत्वार्थ श्रद्धान को सम्यगदर्शन कहते हैं । मोह नीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से यह उत्पन्न होता है। सम्यगज्ञान:-प्रमाण और नय से होने वाला जीवादि तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान मम्यगज्ञान है । वीर्यान्तगय कर्म के माथ ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने से यह उत्पन्न होता है। सम्यगचारित्रः-मंसार की कारणभूत हिंमादि क्रियाओं का त्याग करना और मोक्ष की कारणभूत मामायिक आदि
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy