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________________ ३० श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह तीसरा खण्ड माया में, और माया का तीसरा खण्ड लोभ में मिलाया जाता है । लोभ के तीसरे खण्ड के संख्यात खण्ड करके एक एक को श्रेणीवर्ती जीव भिन्न २ काल में क्षय करता है । इन संख्यात खण्डों में से अन्तिम खण्ड के जीव पुनः असंख्यात खण्ड करता है और प्रति समय एक एक का क्षय करता है। यहां पर सर्वत्र प्रकृतियों का क्षपणकाल अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये । सारी श्रेणी का काल परिमाण भी असंख्यात लघु अन्तर्मुहूर्त परिमाण एक बड़ा अन्तर्मुहर्त जानना चाहिये। इस श्रेणी का आरंभ करने वाला जीव उत्तम संहनन वाला होता है। तथा उसकी अवस्था आठ वर्ष से अधिक होती है । अविरत, देशविग्त, प्रमत्त, अप्रमत्त, गुणस्थानवर्ती जीवों में से कोई भी विशुद्ध परिणाम वाला जीव इस श्रेणी को कर सकता है। पूर्वधर, अप्रमादी और शुक्ल ध्यान से युक्त होकर इस श्रेणी को शुरु करने हैं । दर्शन सप्तक का क्षय कर जीव आठवें गुण स्थान में आता है । इसके बाद संज्वलन लोभ के संख्यातव खंड तक का क्षय जीव नववें गुणस्थान में करता है और इसके बाद असंख्यात खंड का क्षय दसवें गुणस्थान में करता है। दसवें गुणस्थान के अंत में मोह की २८ प्रकृतियों का तय कर ग्यारहवें गुणस्थान का अतिक्रमण (उल्लंघन)
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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