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________________ ३८ श्री संठिया जैन मन्थमाला ( १ ) नग्कानुपूर्वी ( २ ) वियचानुपूर्वी ( ३ ) नरक गति ( ४ ) तिर्यञ्च गति ( ५ ) एकेन्द्रिय जाति (६) द्वीन्द्रिय जाति ( ७ ) त्रीन्द्रिय जाति ( ८ ) चतुरिन्द्रिय जाति ( 8 ) तप ( १० ) उद्योत ( ११ ) स्थावर ( १२ ) साधारण (१३) सूक्ष्म ( १४ ) निद्रानिद्रा (१५) प्रचलाप्रचला ( १६ ) स्त्यानगृद्धि निद्रा । इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर जीव अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपाय की आठों प्रकृतियों के अवशिष्ट अंश का क्षय करता है । इसके बाद क्षपक श्रेणी का कर्ता यदि पुरुष हुआ तो वह क्रमशः नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हाम्यादि पट्क का क्षय करता है। इम के बाद पुरुष वेद के तान खण्ड करता है। इन तीन खण्डों में से प्रथम दो खण्डों का एक साथ क्षय करता है और तीसरे खण्ड को संज्वलन क्रोध में डाल देता है । नपुंमक या स्त्री यदि श्रेणी करने वाले हों तो वे अपने अपने वेद का क्षय तो अन्त में करते हैं और शेष दो वेदों में से वेद को प्रथम और दूसरे को उसके बाद नय करते हैं। जैसा कि उपशम श्रेणी में बताया जा चुका है । इसके बाद वह आत्मा संज्वलन, क्रोध, मान माया और लोभ में से प्रत्येक का पृथक पृथक् क्षय करता है। पुरुष वेद की तरह इनके भी प्रत्येक के तीन तीन खण्ड किये जाते हैं और तीसरा खण्ड आगे वाली प्रकृतियों के खण्डों में मिलाया जाता है । जैसे क्रोध का तोमरा खण्ड मान में, मान का
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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