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________________ ११४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddh int Bhavan, Arrah Closing ! और विष सुखमे जो मग्न है तिनके इह जोग दुरलभ है। जैवत प्रवर्ती सेव दुरलभ कोई ग्यान है सो । Colophon: इति परमात्मप्रकाश समाप्तम् । ३१०. परसमयग्रथ Opening : श्रयता धर्मसर्वस्व श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मन प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। Closing . निश्चेष्टाना वधो राजन कुत्सितो जगती पते । ऋतु मध्योपनीताना पशुनामिवराघव. ॥ १६५ । Colophon : नही है। विशेप-विभिन्न पुराणो से संग्रहीत सदाचार विषयक श्लोक हैं । ३११. प्रश्नमाला भाषा Opening : आगे राजाश्रेणिक गौतम स्वामी त प्रश्न किये । Closing • ते भव्यात्मा कल्याण के अयि सूवृद्धी परभवमे सोभा. पावेगे ऐसी जानि इस प्रश्नमाला को धारन करहु । Colophon: इति श्री प्रश्नमाला सम्पूर्णम् । प्रश्नमाला पूरनभई, आदेश्वर गुनगाय । मग्यक्ति सहित याचित रहो, ज्ञान सुरति मनमाह ।। ३१२. प्रबोधसार Opening : नम श्री वीरनाथाय भव्याभोव्ह भास्वते । सदानद सुधास्यदत् स्वादम वेदनात्मने । Closing . सर्वलोकोत्तरत्वाच्च जेष्ठत्वात्मर्वभूभृताम् । महात्वात्स्वर्णवर्णत्वात्वमाद्य इह पुरुषः ॥ Colophou इति प्रबोधसार, समाप्त. । देखें-जि० २० को, पृ० १७३ । Opening : ३१३. प्रश्नोत्तरोपासकाचार (२४ सर्ग) जिनेण वृपम वदे वृपन वृपनायकम् । पाय भवनाधीश वृपतीय प्रवर्तकम् ॥१॥
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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