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________________ ७४ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing : Colophon . जह देखो तहाँ ब्रह्म है, विना ब्रह्म नही और । जे यह पाये विनसुख कहै, ते मूरप शिरमौर ।। इति श्री ब्रह्मविलास भैया भगवतीदास जी कृत समाप्तम् । तनुज श्री वीरनलाल के, लेखक दुर्गालाल । जैनी आरामो वसे, कासिल गोत्र अग्रवाल । श्री शुभ सम्वत् १९५४ मिती भादो शुक्ल १४ बृहस्पतिवार समाप्त भया । १८७ बह्याब्रह्मनिरूपण Opening : Closing : ___ असी माउसा पच पद, वदी शीश नवाय । कहु ब्रह्मा अरु ब्रह्म की, कहु कथा गुनगाय ।। ____सोई तो कुपथ भेद जाने नाही । __ जीवन की, विना पथ पाय मूढ कैसे मुन्दा हरसे ।। पूरनम् । Colophon १८८. बुद्धिप्रकाश Opening ! मनदुखहरकर सिद्धसुरा, नरासकल सुखदाय । हराकर्मभट अष्टक अरि, ते सिध सदा सहाय ।। Closing - पढो सुनो सीखो सकल, वुधप्रकाश कहत । ताफल सिव अधनासिक, टेक लहो सिव सत ॥ Colophon! इति श्री बुधिप्रकाशनाम ग्रथ सपूर्णम् । इसनथ का प्रारभ तो नगर इदोर विष भया। बहुरि तापीछे स पूरण भाडलनग्न जोमलसाता विष भया। याके पढ सुनै तै ब्रहि होय तात हे भव्य हो जैसे तैसे इसका अभ्यास करने योग्य है। मिति कार्तिक वदी एकम चद्रवार स वत् १९७८ तादिन यह शास्त्र ममाप्त भया। हस्ताक्षर प० श्री दुवै रुपनारायण के । Opening: - १८९. बुद्धि विलास समदविजय सुत जिनसु नमत अघहरत सकलजग, कुवर पदहितप षडगलियवकर हनिये करम ठग ।
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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