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________________ ( १८६ ) श्री जैन नाटकीय रामायण । जनक-ऐसे योग्य पुरुष से मित्रता करने में मैं अपना सौभाग्य मानता हूं । कहिये मेरे लिये क्या आज्ञा है ? ' 'चन्द्रगती -- मैंने सुना है कि तुम्हारे एक सीता नामक चुत्री है उसके रूप की प्रशंसा सुन कर मेरा पुत्र भामण्डल उसे प्राप्त करने के लिये अत्यन्त व्याकुल हैं । सो तुम अपनी पुत्री मेरे पुत्र से व्याह कर मुझसे चिरकाल सम्बन्ध स्थापित करो । जनक- हे विद्याधरादि पती, मैं अपनी पुत्री को तुम्हारे पुत्र के लिये देने में असमर्थ हूं क्योंकि मेरा निश्चय दशरथ के पुत्र राम को पुत्री देने का है। चन्द्रगती-तुमने उसमें क्या गुण देखे जो उसे पुत्री देने का विचार किया । जनक-सुनिये जिस समय मेरे ऊपर म्लेच्छों का श्राक्रमण हुआ था. उस समय राम लक्षमण दोनों भाइयोंने ही आकर मुझे और मेरे नगर को बचाया था, उनको प्रत्युपकार में मैंने अपनी पुत्री को देने का निश्चय किया है । वो महान पराक्रमी : ऐश्वर्यमान है चन्द्रगती-हे जनक ! तुम उस छोकरे की क्यों इतनी प्रशंसा करते हो । हम विद्याधरों से बढ़कर वो कदापि नहीं हो सकता । विद्याधर आकाश में चलने वाले देवों के Mic
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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