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________________ द्वितीय भाग ( १२१ ) कभी न घबरावो कभी दुख में, घड़ी सुख की भी आयेगी । है कभी दुखहै, यही ज्ञानी सदा कहते ॥ पर्दा गिरता है । अद्वितिय -- दृश्य चौथा सुख ( पवनकुमार और प्रहस्त दोनों आते हैं। पवनकुमार - मित्र प्रहम्त, हम लोग यहां मान परोचर पर ठहरे हैं, इसकी भृमी को देख कर मुझे विवाह समय की याद रही है | यहा उस चकवी को देखा । अपने प्रीतम के न मिलने से कैसी तड़फ रही है। जब इसको पति के एक रात के विरह में ही इतनी तड़फन है तो हाथ, उस अंजना सती को जिसे छोड़े हुवे वाइस बरस होगये क्या ढंग होगा । मैं अत्यन्त मूर्ख हूं जो सखी के अपराध पर उस अमला को छोड़े हुवे हूँ । हाय, मेरे बिना वह सती किस प्रकार जीती होगी। मैने उसे इतने कठोर शब्द कहे किन्तु उसने मेरी प्रशंसा ही की। वह सच्ची पतीव्रता स्त्री है। मैं विना उससे मिले भव भागे नहीं वढ़ सकता । रण से लौट कर थाने तक वह अवश्य ही अपने प्राण दे देगी। प्रहस्त - मित्र, तुमने यह विचार बहुत ही उत्तम किया है। वेचारी अंजना के आज शुभ कर्म का उदय है । जो तुमने ऐसा
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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