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________________ ( १२०) श्रीजैन नाटकीय रामायण । हृदय को शान्ति थी। अब आप दुर जारहे हैं। मैं आपके विरह में कैसे जीऊंगी पवन०-( अंजना को ठुकरा कर ) चल हट कलंकिणी (चले जाते हैं। अंजना-हाय, गये, मेरे दिवाकर भगवान अस्ताचल की ओर चले गये न मालूम कब लौट कर आयेंगे । जिस प्रकार दिन, विना सूर्य के । रात्री, विना चन्द्रमा के । नहीं शोभती उसी प्रकार मेरा जीवन भी इस संसार में निष्फल है। बसंततिलका-- सखो धैर्य घरो ! इस संसार में दुख के बाद सुख और सुख के बाद दुख अवश्य आता है । अविनाशी सुख तो केवली भगवान को ही प्राप्त होता है । तुम्हारे बचपन के दिवस सुख से कटे थे । अब तुम्हें दुख मिल रहा है । याद रखो । सुख भी अवश्य ही प्राप्त होगा। गाना सदा दिन एकसे बहना, किसी के भी नहीं रहते। जगत प्राणी कभी सुखपा, कभी अति दुःख हैं सहते॥ ये हैं संसार धोखे का, नहीं इसका भरोसा कुछ । कभी होकर मगन फूलें, कभी आंखों से जल बहते।।
SR No.010505
Book TitleJain Natakiya Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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